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सातवां मकरा |
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जिसका सविस्तर वर्णन करना लेखनी की शक्ति से बाहर है । इसके अनन्तर राजा अकबरबादशाह की राज सभा में और फरेंग के राजा की राजसभा में भी इनके गुणगान होने लगे । इन दोनों महानुभावों ने धर्म-अर्थ- काम इन तीनों पुरुषार्थों को अपने प्राधीन कर लिया |
एक रोज़ निष्पाप - निष्कपट स्वभाव युक्त यह दोनों भाइ मापस में विचार करने लगे कि अपने द्रव्य से देव गुरु कृपा से सब कुछ कार्य हुए। अब जिन भवनमें जिन बिंबकी प्रतिष्ठा करानी चाहिये । क्योंकि जिन भवन में जिनंप्रतिमा को स्थापन कराने से जो फल उत्पन्न होता है उस पुण्यरूपी पुरंप से मुक्ति का सुख मिलता है । यह विचार करके जिनबिंब की प्रतिष्ठा कराने के लिये एक बड़े भारी उत्सव और बड़ी धूमधाम के साथ सं० १६४५ मिति ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन उत्तम मुहूर्त में श्रीविजन सेन सूरीश्वर के हाथ से श्रीचिन्तामणि पार्श्वनाथ तथा श्रीमहावीर स्वामी की प्रतिष्ठा करवाई | सप्त फणिधर इस चिंतामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा ४१ अंगुल की रक्खी । इस प्रतिमा का चमत्कार चारों ओर फैलने लगा । क्यों कि प्रत्येक पुरुष की मनोकामना इस प्रतिमा के प्रभाव से पूरी होती थी । इसके पश्चात् यहां पर इन दोनों महानुभावोने एक पार्श्वनाथ प्रभुका मंदिर भी बनवाया । इस मंदिर में बारह स्तंभ, छद्वार और सात देवकुलिका स्थापित की गई । इस मंदिर में सब मिला करके २५ जिन बिंब स्थापन कर वाये । सब से बढ़ कर बात तो यह हुई कि इस मंदिर में चढ़ने-उतरने की २५ तो शि. दाँ रखवाई थीं ! मूळ प्रतिहारमें एक बाजू में ३७ प्रांगुल प्रमाण वाली श्रीआदीश्वर भगवानकी प्रतिमा और दूसरी बाजू में ३३ अंगुल प्रमाण वाली । श्रीमहावीर स्वामी की प्रतिमा विराजमान
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