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विजयप्रशस्तिसार । एक समय में हीरविजयसूरि की इच्छा सूरिमंत्र की प्राराधना करने की हुई, विहार करते हुए आप 'डीसा' शहर में पधारे जहां बड़े प्रास्तिक और धर्म-प्रिय लोग रहते थे। इस नगर में साधुस. मुदाय को पढ़ाने का, योग वहनादि क्रियाओं को कराने का और व्याख्यान इत्यादिके देने का कार्य श्रीजयविमल के ऊपर नियत करके श्रीहरिविजय सुरिजी ने त्रिमासिक सुरिमंत्र का ध्यान करना प्रारम्भ किया । एक दिन ध्यानारूढ़ सूरिमंत्र में तलालीन सूरिजी को जान कर सूरिमंत्रका अद्भुत अधिष्ठायक देवता सरिकी सामने उपस्थित हुवा और बोला “ हे भगवन् ! आपकी पाट श्रीजयविमलगणि के योग्य है । " इस प्रकार की देव बाणी को सुन कर प्राचार्य बहुत प्रसन्न हुए। हीरविजयसूरि जी जब ध्यान से मुक्त हुए तब इन्हों ने यही विचार किया कि-जय विमल नामके शिष्यशेखर को अपनी पाट पर स्थापन करना चाहिये । यह विचार आपने साधु-साध्वीभावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघके समक्ष सूचित किया। क्योंकि जब तक मानने वालों की रुचि और श्रद्धा न हो, तब तक भारीसे भारी पदवी हो तो भी उससे कुछ कार्य नहीं निकल सकता। प्राचीन काल में आज कल के समान नियम नहीं था कि चाहे कोई माने चाहे न माने, पर पदवी का विशेषण नाम में अवश्यही लगाया जाय गा । अब तो यह चाल है कि पदवीधर अपने को पदीयोग्य समझता है बस वह लम्बेर पद अपने नाम में लगा ही खेगा। चाह कोई उसकी माने या न माने । इससे बढ़ कर शोक की क्या घात होगी? धन्य है ऐसे महात्मामों को कि जो सच्चे पदवी धर होने पर भी अपने को कभी आपसे 'मुनि' शब्द का विशेण भी नहीं लगाते हैं।
हीर विजयसूरि जी के विचार का समस्त संघने सानंद अनु.