Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 30
________________ २२ चौथा प्रकरण। प्राप्त करेगा' बस्न । यही विचार हढ़ करके महाराज ने जयविमल को गुजरात जानेके लिये प्राक्षा दी। विहार करते हुए जयविमलको उ. त्तमोत्तम लाभ सूचक शकुन हुए । आप जगह२उपदेश दानको करते. हुए बहुत दिनों मे गुजरात जा पहुँचे । गुजरातमें भी अणहिलपुर पाटन, कि जहां भीहीरविजयसूरि जी बिराजते थे वहां गए । नगर में प्रवेश करने के समय भी जयविमल को बहुत कुछ अच्छ२ शुकन हुए । प्राचार्य श्रीहरिविजयसूरिजी के पाद पंकजमें नमस्कार करने के समय बड़े हर्ष पूर्वक जयविमल के मस्तकपर श्रीहरिविजय सूरिजी ने अपना हाथ स्थापन किया । इस लघुमुनि को देख कर समस्त मुनिमण्डल और शहर के लोगों को चित अपूर्व मानन्द अभिव्याप्त हो गया । सर लोग उनकी ओर देखने लगे । 'जयवि. मत' मुनि विनय पूर्वक श्रीहरिविजयसूरिजी से विद्या को ग्रहण करते हुए विचरने लगे। . इधर भीविजयदानसूरिजी सुरत बन्दर से विहार करते हुए और अनेक जीवों को प्रतिबोध करते हुए 'श्रीपटपल्ली' नगरी में पाए। यहां पर मापने अपना अंत समय जाना । संयमरूपी शिखर में ध्वजतूल्य, और पाप को नाश करने वाली आराधना को किया और अरिहंतादि चार शरणों का ध्यान करते हुए, और चार माहारों के त्याग रूप अनशन को करके श्रीविजयदानसूरीश्वर ने सं० १६२१ वैशाख शुक्ल द्वादशी के दिन देव लोक को भूषित किया । इस स्वर्गवासी सूरीश्वरकी भक्ति में लीन इस नगर के श्रीसंघने गुरु पादुका की स्थापना रूप एक स्तूप भी निर्माण किया । अब तपागच्छ रूपी आकाश में हीरविजयसूरि रूपी सूर्य का प्रकाश फैलने लगा। मारे गच्छका कार्य प्रापही में शिर पर पापड़ा।

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