Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 34
________________ चौथा प्रकरणा। है। उसी प्रकार यह अवसर भी मुझे अपूर्व ही प्राप्त हुआ है। इस लिए इस कार्य में भी कुछ लक्ष्मी का व्यय करके योग्य फल प्राप्त करू । ऐसा अवसर पुनः नहीं प्राप्त होता है। जिस के अन्तःकरण में ही ऐसे भाव उत्पन्न हो गए, वो क्या नहीं कर सकता है । इस श्रेष्ठीने इस समय में दान शालाएं खुल- . वा दी । स्वामीवात्सल्य करना प्रारंभ किया। मंगलगीत गाने बालों को बैठा दिया । घरघोडे निकालने प्रारम्भ किए । कहां तक कहा जाय ?। इन्होंने बहुत द्रव्यों को लगा कर इस महोत्सव की अपूर्व शोभा बढ़ा दी । इस प्रकार के महोत्सव पूर्वक संवत् १६२८ मिती फाल्गुन शुक्ल सप्तमी के दिन शुभ मुहूर्त में 'जयविमल' को प्रथम उपाध्याय पद पर स्थापन करके तुरन्त ही 'आचार्य' पद दिया गया। इस नव रिका नाम श्रीहीरविजय सूरीश्वर ने 'भीर विजयसेनसूरि' रक्खा । इस 'प्राचार्य' पदरी के समय में और भी बहुत से मुनिराजों को पदवीएं मीली । जैसे कि श्री विमलहर्ष पण्डित को 'उपध्याय' पद , पद्मसागर-लब्धिलागर श्रादि को 'पण्डित' पद इस्यादि । इस महोत्सव पर उपस्थित समस्त देशों के लोगों को एक-एक रुपये की प्रभावना की गई, और याचक लोगों को भी द्रव्य-वस्त्रादि से दान दिया गया। ___यह दोनों गुरू शिष्य (प्राचार्य) श्रीतपागच्छ रूपी शकर के प्रतिभाशाली चक्र को चलाने वाले हुए । प्राचार्य पदवी होने के बाद कुच्छ रोज तो आपका वहां ही रहना हुआ । तदन्तर लोगों को धर्मोपदेश देते हुए विचरने लगे । जिस समय में यह दोनों विद्वान सूरि धर्मोपदेश करते हुए विचरने लगे, उस समय कुतीर्थयों का प्रचार अनेक स्थानों से उठ गया और उनकी स्वार्थ लीलय की महिमा अधिकांश में कम हो गयी।

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