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- . • विजयप्रशस्तिसार । .: कुछ दिन के पश्चात् स्तम्भतीर्थ से सूरीश्वर ने अपने शिष्य मण्डल के सहित विहार किया। और विहार करते हुए अहम्मदावाद सापहुंचे । अहमदाबाद के समीपवर्ती अहम्मदपुर नाम के शाखापुर में आपने निर्विघ्नसे चातुर्मास समाप्त किया। एक दिन भीहीरविजय. सूरिजी रात्रि में पोरसी पढ़ाकर गच्छविषयक चिंता करते हुए सोगये । उस समय एक अधिष्ठायिक देव आकरके कहने लगा 'हेसूरीश्वर ! इस जयविमल पण्डितको ‘पट्टप्रदान करने में आपकी क्यों अनु. त्सुकता मालूम होती है ? हे पूज्य ! यह पट्टधर श्रीमहावीर परमामाकी पाटपरंपरा में एक 'दिवाकर ' होगा, इतने शब्द कह करके वह देव अदृश्य होगया। - इसके पश्चात् बाचक-उपाध्याय पण्डित-गितार्थ प्रमुख समस्त. मुनिगण ने नमूता के साथ प्राचार्य महाराज से प्रार्थना की 'हेप्रभो ! श्रीसंघ की इच्छा श्रीजयविमल पण्डित को 'प्राचार्य ' पद पर स्था. प्रन करने की है । और वह इच्छा जैसे बने शीघ्र कार्य में परिणत होनी चाहिये ।' देववाणी संघवाणी और अपना अभिप्राय यह तीनों की ऐक्यता होने से प्राचार्य महाराज ने कहा " एपमस्तु !" तदनन्तर अहम्मदाबाद के श्रीसंघ के अत्याग्रह से, सूरिजीमहाराजने शहर में प्रवेश किया । प्रवेश होने के बाद ही 'आचार्य' पदबी के निमित्त एक महोत्सव श्रीसंघकी तर्फ से आरम्भ हुआ । इस समय में इस नगर के नगर शठ, गृहस्थ धर्मप्रतिपालक, श्रेष्ठी 'श्रीमूलचन्द्र' ने विचार किया कि-न्यायोपार्जित द्रव्य के फल अहत्प्रतिष्ठा करना, जिनचैत्य, जिन पूजा, गुरुभक्ति और शानप्रभावना ही धर्मशास्त्रों में कहे हुए है । अतएव उन फलों को शक्त्यनुसार मुझको भी प्राप्त करना योग्य है । मैने श्रीशत्रजयतीर्थ में श्रीऋषभदेव भ. गवान के प्रसाद की दक्षिण और पश्चिम दिशा में एक चैत्य बनवाया