________________
तीसरा प्रकरणा ।
१६
माल होगये, तब सूरिमंत्र का अधिष्ठायक देवता अत्यन्त हर्षपूर्वक भीसूरिमहाराज के सन्मुख प्रत्यक्ष होकरके कहने लगा:-' हे प्रभो ! हरिहर्ष नामक वाचक आपकी पाटपर स्थापन होने योग्य है'। बस ! इतनाही कह करके वह अन्तर्द्धन होगया ।
देवता का उपरोक्त बचन सुन करके सूरिजी को अत्यन्त हर्ष हुआ | आपने अपने मन में विचार किया कि यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इस देवताने मेरेही अभिप्राय को स्पष्ट रूपसे कहा सूरीश्वर ने आ करके यह बार्ता अपने मंडल में प्रकाश की । समस्त ने यही कहा कि "जैली आपकी इच्छा हो, साधुमण्डल वैसे ही कार्य होगा' । इसके बाद सं० १६१० मिती मार्गशिर्ष शुक्ल दशमी के दिन शुभमुहूर्तमें महोत्सव पूर्वक 'शिरोही' नगर में चतुर्विध संघकी सभा के समक्ष परमगुरु श्रीविजयदानसूरीश्वर ने तपगच्छ के साम्राज्यरूप वृक्षक बीज भूत श्रीहीरहर्ष वाचक कों 'प्राचार्य' की पदवी दी । सूरिपद होने के समय भीहीरहर्षोपा ध्यायका नाम 'श्रीहीरविजयसूरि' रक्खा गया ।
प्रियपाठक ! देख लीजिये ! श्राचार्य पदवीयोंकी कैली परिपाटी थी ? । भाग्यवान् पुरुष पदवी को नहीं चाहते हैं किन्तु पदवीएं भाग्यवानों को चाहती है । खेद का विषय है कि आजकल के लोग पदवीयों के पीछे हाथ पसारे घूमते-फिरते हैं । गृहस्थों के सैकड़ोंहजारों रुपये नष्ट करवा देते हैं । फिर भी पदवी मिली तो मिली नहीं तो लोक में अप्रतिष्ठा होती है। क्या दो-चार पण्डितों को किसी प्रकार प्रसन्न कर लिया और इसी रीति से कोई भी टाइटल पाकर कृतकृत्य होजाना ही यथार्थ पदवी पाना है १ ऐसा नहीं है, यदि उच्च पद पर बैठने की इच्छा है तो पक्षी परमात्मा के घर की लेने की