Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 25
________________ १८ विजयप्रशस्तिसार श्वर विराजते थे, आ पहुंचे । बस ! कहना ही क्या ? बड़े विद्वान् और विनयवान् शिष्य के आने से गुरुमहाराज को अत्यन्त हर्ष प्राप्त भया । हीरहर्ष के लिए तो कहनाही क्या ? इस महानुभाव को तो गुरुमहाराज को देखते ही हर्ष के अनु निकलने लगे । तात्कालिक बनाये हुए १०८ श्लोक का पाठ करके, बद्धाञ्जलीपूर्वक, विधि सहित हरिहर्ष ने गुरुमहाराज को बंदना की। चन्द्र को देख करके जैसे समुद्रकी उर्मिये उल्लास को प्राप्त होती है। वैसे ही पुत्र समान, वि. खुदकलासम्पन्न शिष्य को देख २ कर गुरुवर्य महाराज हर्षित होने लगे। कुछ समय बाद उसी नारदपुरी नगरी में सं-१६०७ में शुभदिन को देख करके भीऋषभदेवप्रभु के प्रसाद में गुरुमहाराज ने इन हीर. हर्ष को सभा समक्ष विद्वद् ' पद दिया । इस पद को पालन करते हुए केवल एकही वर्ष हुआ कि नारदपुरी के समस्त श्रीसंघने तपगच्छाचार्य श्रीविजयदानसूरि महाराज से प्रार्थना की ' हे प्रभो हम लोगों की यह प्रार्थना है कि श्रीहरिहर्ष पण्डित को ' उपाध्याय' पद दिया जाय तो बहुतही उत्तम बात है। गुरुमहागज के मनमें तो यह बात थी ही और संघने विनति की । सूरिजी महाराज के विचार और भी पुष्ट हुए। इसके बाद सं० १६०८ मिती माघ शुक्ल पञ्चमी के दिन नारदपुरी ही में भीसंघ के समक्ष श्रीवरकाणा पार्श्वनाथकी शाक्षी में, भीनेमिन नाथ भगवान के चैत्य में गच्छ में उपस्थित समस्त साधुओं की अनु. मति सहित श्रीहरिहर्ष पण्डित 'उपाध्याय' पद पर स्थापित किए गये। उपाध्याय पद पर नियत होने के पश्चात् सूरिजीने सोचा कि श्रीतपागच्छ का आधिपत्य हीरहर्षोपाध्याय को होगा। ऐसा विचार करके आपने सूरिमन्त्र का अराधन करना प्रारम्भ किया । जब पूरे तीन

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