Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 27
________________ विजयप्रशस्तिसार। कोशिश करनी चाहिथे। बिन्तु ठीक है ! निर्नाथ जैन प्रजा में वर्तमान समय में जो न हो सो थोड़ा है। ... ... .'शिरोही नगर से विहार करते हुए श्रीविजयदानसूरि महा राजने श्रीहीरविजयसूरि को पतन (पारण ) नगर में चातुर्मास करने की प्राशा दी । और आप स्वयं कोकण देश की भूमि को पवित्र करते हुए सूरत बन्दर पधारे। चौथा प्रकरण। (श्रीविजयसेनसूरि की दीक्षा, उपाध्याय-प्राचार्यपर, 'मेघनी' आदि सत्ताईस पण्डितों का लुपाकमत त्यागना, और सुरत में दिगम्बर पण्डित, श्रीभूषण के साथ शास्त्रार्थ करके उसको परास्त करना इत्यादि) इधर 'जयसिंह' बालक अपनी माता के साथ अपने मामा के यहां एश-आराम से दिवस व्यतीत कर रहा है। समस्त लोगों को आनंद दे रहा है। एक रोज यह बालक अपनी माता से कहने लगा "हे.जननि ! हे मातः ! अब मैं अपने पिता 'कमा' ऋषि की तरह जन्म-मरणादि व्यपत्तियां को नाश करने वाली दीक्षा ग्र. हण करने की इच्छा बाला हूं, अर्थात् जो मार्ग मेरे पिता ने लिया है वही मार्ग में लेना चाहता हूं"। इन वाक्यों को सुन करके माता कहने लगी " हे बालक! तू अभी बहुत छोटा है। लोहमार की तरह विषम बोझे वाली और शारीरिक सौख्य को ध्वंस करने वाली दीक्षा अभी तेरे बोग्य नहीं

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