Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 17
________________ विजयप्रशस्तिसार । लेकर पधारे थे। इस समय में साधुओं में परिग्रह और क्रिया में शिथिलता की वृद्धि होगई थी; अतएव इन प्राचार्य महाराजने उपयोगी प्रस्त्र, पात्र और पुस्तक को छोड़करके दूसरे सब परिग्रहों को हटाया और क्रिया में भी यथोचित सुधार किया। पूज्य मुनिवरों का और विशेष करके प्राचार्यादि उच्च पदवी धारक महागजों का इस ओर ध्यान होना उचित है। पूज्यो ! वर्तमान समय भी ऐसाही आया है जैसा कि श्रीमानविमलसूरि के समय में आया था । आजकल धार्मिक बातों में अनेक प्रकार की शिथिलता दे. खने में आरही है । इनका अधिक वर्णन करके निन्दा स्तुति करने का यह स्थल नहीं है। इदानीन्तत्र दोषों को देखकर यह सब लोग स्वीकार करेंगे कि वर्तमान समय में उपर्युक्त दोनों बातों में सुधार करने की बहुतही आवश्यकता है। भीमानंदविमलसूरिजी की तरह इस समय में भी कोई सूरीश्वर या मुनि मण्डल निकल पड़े तो क्याही अ. च्छा हो? अस्तु! .. श्रीमानंदविमलसूरि जीने अपनी उपदेश शक्ति से कुतिर्थियों की युक्तियों को नष्ट करके शुद्ध मार्ग का प्रकाश किया। इस सूरीश्वर के प्रभाव से हजारों जीवों ने शान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रय प्राप्त किया। सिवाय इसके अष्ट प्रवचन माता में यत्नवान भीमानंदविमलसूरि ने छह, अट्टम, आलोचनातप, विशस्थानकतप , अष्टकर्मनाशकतप, आदि तपस्या के द्वारा अपने शरीर को कृश करने के साथ अपने पापों को भी भस्म कर दिया। जिस पूज्यपाद ने भीतपागच्छरूप प्राकाश में उदयावस्था को प्राप्तकर श्रीमहाबीरदेव की परम्परारूप समुद्र के तटको अ. त्यन्तही उल्लास से अलंकृत किया । यह सूरीश्वर ने, अपनी पाटपर प्राचार्यवर्य श्रीविजयदानसूरि को स्थापित करके सं० १५९६ में समाधी को भजते हुए, अहमदाबाद के निकट निजामपुर नगर में इस मर्त्यलोक को त्याग करके देवलोक को अलंकृत किया।

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