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दूसरा प्रकरण ।
११.
आचार्य भीषिजयदानसूरीश्वर इस भूमंडल में अनेक जीवों को शुद्ध मार्ग को दिखाते हुए विचरते रहे । आपने एकादशांगि की और बारह उपांग की प्रतियां को अपने हाथ से कईबार शुद्ध किया । इस भीविजयदानसूरिजी की क्रिया, स्वभाव और आचार कुरानता को देखने वाले लोग भीसुधर्मास्वामी की उपमा को देते थे । एक दिन की बात है कि श्रीविजबंदानसूरिप्रभु मरुदेश को अलंकृत करते हुए क्रमशः 'अजमेरुदुर्ग' (लौकिक पुष्कर तीर्थके निकट) M पधारे इस दुर्ग में रहने वाले बिनप्रतिमा के शत्रु 'लुका' नामक कुमति के रागी लोगोंने क्रुर ग्राशय और द्वेष बुद्धि से दुष्ट व्यन्तर भूत-पिशाच वाला मकान विजयदानसूरिजी को ठहरने के लिये दिखाया। सूरीश्वरने भी अपने शिष्य मण्डल के साथ उति मकान में निवास किया । उस मकान में रहने वाले दुष्ट देवाने मनुष्याको मारने की चेष्टा वे शुरू की । थे अनेक प्रकारके विभत्सरूपों को धारण करके उस समुदाय के साधुओं को डराने लगे । एकदिन यह बात साधुओं ने अपने चाचार्य महाराज को निवेदन की । श्राचार्य महाराज ने अपने मनमें विचार किया कि जैसे पानी के प्रवाह से वन्दि का नाश होता है वैसे पुरुष के प्रभाव से यह विघ्न भी प्राप ही सब शान्त हो जायँगे । उस रोज रातको साधु लोग आवश्यक क्रिया - पौरसी आदि करके सो गये । किन्तु हमारे सूरीश्वरजी निद्रा न लेकर सुरि मंत्रका ध्यान करने लगे । उस समय श्रीविजयदान सूरीश्वर के सामने धीट होते हुए, हास्य करते हुए,' रुदन करते हुए, पृथ्वी पर जोर से गिरते हुए, अनेक प्रकार के विरुद्ध शब्द करते हुए, नाना प्रकार की क्रिड़ाओं को खेलते हुए और बाल चेष्टाओं को फैलाते हुए वे देवता लोग भाने लगे । किन्तु उन देवों की सभी चेष्टाएं सूरीश्वर के सामने व्यर्थ होगई ।