Book Title: Vijay Prashasti Sar
Author(s): Vidyavijay Muni, Harshchandra Bhurabhai
Publisher: Jain Shasan

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Page 21
________________ विजयप्रशस्तिसार । मुशीला की थी । यह पतिव्रता अपने पति के साथ मांसारिक सुखों को मानन्द अनुभव करती थी। इस धर्म परायणा माथीदेवी ने उत्तम गर्भ को धारण किया । जिस प्रकार शुक्ति में मुक्ताफल दिन-प्रतिदिन बढ़ता है। उसी प्रकार गर्भवती का गर्भ भी दिन परदिन बढ़ने लगा । इस उत्तम गर्भ के प्रभाव से शेठ के घर में अद्धि-समृद्धि की अधिक वृद्धि हो गई। __ नवमास पूरे होने के अनन्तर सं० १५५३ के मार्गशिर्ष सुदीर के दिन इस देवीने उत्तमोत्तम लक्षणोपेत पुत्र को जन्म दिया। शेठ ने इस पुत्रके जन्मोत्सव में बहुत ही उत्तमोत्तम कार्य किये । शेठ के वहां कई दिनों तक मंगलगीत होने लगे । याचकों को अनेक प्रकार से दान दिए । सारे नगर के भावात वृद्ध बाब प्रसन्न मन होकर उस महोत्सव में सम्मिलित हुए । 'उत्तम पुरुषों का जन्म किस को भानंद देने वाला नहीं होता है ? चन्द्रमा की कला के समान दिन प्रतिदिन यह प्रतिभाशाली बालक बढ़ने लगा । जो लोग इसको देखते थे वो यही कहते थे कि यह भारतवर्ष का अपूर्व तेजस्वी हीरा होगा । इस बालक की माता ने स्वप्न में 'हीरराशी' ही देखीथी । पुत्र के उत्तमोत्तम लक्षण भी छिपे हुए नहीं थे। अर्थात वह हीरे की तरह चमकता था । बस कहना ही क्या था? सब लोगों ने मिल कर इसका नाम भी 'हीरा' रख दिवा । लोग चिको 'हीरजी' करके पुकारते थे । काल की महिमा अचिंत्य है। हुमा क्या? हमारे हीरजी भाइके माता पिताने थोड़े ही दिनों में सम्यक् माराधना पूर्वक देवलोक को अलंकृत किया । कुछ दिन व्यतीत होने के बाद हीरजी भाइ अपने माता-पिता का शोकदूर करके अपनी बहन को मिलने के विचार से श्रीमणहिलपाटक (मणहिलपुर पाटन ) गये । बहन अपने भाइसी सुन्दर प्राकृति को

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