Book Title: Vairagya Path Sangraha Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust TikamgadhPage 11
________________ वैराग्य पाठ संग्रह पर वे तो वीर नहीं भाई, स्त्री कटाक्ष से हार गये। हैं महावीर वे ही जग में जो निर्विकार उस समय रहे॥१२॥ यह तो निमित्त का कथन मात्र, है दोष नहीं कुछ नारी का। है दोष स्वयं की दृष्टि का, पुरुषार्थ शिथिलता भारी का॥१३॥ यदि ज्ञान दृष्टि से देखो तो, परद्रव्य नहीं कुछ करता है। पर लक्ष्य करे खुद अज्ञानी, अरु व्यर्थ दुःख में पड़ता है।१४।। पर को अपना स्वामी माने, खुद को आधीन समझता है। सुख हेतु प्रतिसमय क्लेशित हो, अनुकूल प्रतीक्षा करता है।।१५।। प्रतिकूलों के प्रति क्षोभ करें, नित आर्तध्यान में लीन रहें। दुःखदाई ऐसे क्रूर भाव को, ज्ञानी स्त्रीपना कहे ॥१६।। इन परभावों को ही कुशील, जिन-आगम में बतलाया है। पुण्यभाव भी निश्चय से, दुःखमय कुशील ही गाया है॥१७॥ है ब्रह्म नाम आतम स्वभाव, उसमें रहना ब्रह्मचर्य कहा। व्यवहार भेद अठारह हजार निश्चय अभेद सुखकार महा॥१८॥ अतएव भ्रात ब्रह्मचर्य धरो, नव-बाढ़ शील की पालो तुम। अतिचार पंच भी तजकर के, अनुप्रेक्षा पंच विचारो तुम ॥१९॥ निश्चय ही जीवन सफल होय, आकुलता दूर सभी होगी। विश्राम मिले निज में निश्चय, अक्षय-पद की प्राप्ति होगी॥२०॥ (दोहा) ब्रह्मचर्य सुखमय सदा, निश्चय आत्मस्वभाव । पावनता स्वयमेव हो, मिटते सभी विभाव ।।२।। आत्मा में ज्ञान तो सबके है, पर धन्य वे हैं जिनके ज्ञान में आत्मा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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