Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 88
________________ 86 वैराग्य पाठ संग्रह सुन्दरतम शुद्धात्म स्वरूप, शाश्वत शोभा लखी अनूप । बाह्यरूप नहिं मन को मोहें, अविकारी मुनि जग में सोहें ॥ १९ ॥ राग-रागिनी शब्द कुशब्द, सुनते भी मुनि हो नहीं क्षुब्ध | अंतर आत्मप्रसिद्धि जगाय, सहज उदास रहे मुनिराय ||२०|| ध्यावें आत्मरूप अविकार, साम्यभाव वर्ते सुखकार । ज्ञायकपने स्वयं को जोय, भिन्न ज्ञेय भासे सब लोय ॥ २१ ॥ इष्ट-अनिष्ट विकल्प न आय, नहीं विषमता हो दुखदाय । सामायिक यह मंगलरूप, होय सहज मुनि को शिवरूप ॥ २२ ॥ दर्शायो आतम उत्कृष्ट, जग में पूज्य पंच पद इष्ट । हो स्तुति वंदन बहुमान, वर्ते सहज भेद विज्ञान ॥ २३ ॥ नहीं अतिक्रमे शुद्ध चिद्रूप, सहज होय प्रतिक्रमण अनूप । क्रिया ज्ञानमय नित अविकार, दुखदायक अतिचार विडार ||२४|| निमित्त रूप आगम अभ्यास, आप आप जाने सुखरास । कायोत्सर्ग मुद्रा धरि नित्य, देखे आत्मस्वरूप पवित्र ॥ २५ ॥ नहीं स्नान नहीं शृंगार, नग्न देह शोभे अविकार । अन्तर बाहर सहज पवित्र, रहित वासना निर्मल चित्त ॥ २६ ॥ देहाति निद्रा भी अल्प, जागृत सहज रहे अविकल्प । स्वाश्रय से लुँचे सु कषाय, केशलोंच बाहर सुखदाय ||२७|| खड़े-खड़े हो अल्पाहार, एकबार संयम चित्त धार । न हो दन्तवन हिंसारूप, धन्य जैन मुनि मंगलरूप ॥२८॥ नभ समान निर्लेप असंग, ध्यावें शुद्ध चिद्रूप अनंग | दर्शावें जग में सुखकार, ध्रुव मंगल शुद्धातम सार ॥ २९ ॥ परम शान्त मुनिवर आदर्श, मोह विनाशक मुनि का दर्श । धन्य भाग्य जब दर्शन पाऊँ, हो निर्ग्रन्थ स्वरूप सु ध्याऊँ ||३०|| रत्नत्रय शोभित अहो, धन्य साधु निर्ग्रन्थ । साधें आत्मस्वरूप निज, दर्शावें शिवपंथ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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