Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 120
________________ वैराग्य पाठ संग्रह अनन्तमती की दृढ़ता देखी, मात-पिता भी शांत हुये । आनन्दित हो धर्मध्यान में, वे सब ही लवलीन हुये ।। झूला झूल रही थी इक दिन, कुण्डलमण्डित आया था। कामासक्त हुआ विद्याधर, जबरन उसे उठाया था ।। पर पत्नी के भय के कारण, छोड़ा उसे विमान से ।। सती शिरोमणि अनन्तमती की गाथा जैन पुराण से ॥ ८ ॥ एकाकी वन में प्रभु सुमरे, भीलों का राजा आया । कामवासना पूरी करने को, वह भी था ललचाया ॥ देवों द्वारा हुआ प्रताड़ित, सती तेज से काँप गया। पुष्पक व्यापारी को दी, उसने वेश्या को बेच दिया ॥ देखो सुर भी होंय सहाई, सम्यक् धर्मध्यान से ॥ सती... ॥ ९ ॥ वेश्या ने बहु जाल विछाया, पर वह भी असमर्थ रही। भेंट किया राजा को उसने, सती वहाँ भी अडिग रही ॥ देखो कर्मोदय की लीला, कितनी आपत्ति आयी । महिमा निजस्वभाव की निरखो, सती न किंचित् घबरायी ॥ कर्म विकार करे नहीं जबरन्, व्यर्थ रुले अज्ञान से ॥ सती...॥ १० ॥ निकल संकटों से फिर पहुँची, पद्मश्री आर्यिका के पास । निजस्वभाव साधन करने का, मन में था अपूर्व उल्लास ॥ उधर दुखी प्रियदत्त मोहवश, यहीं अयोध्या में आये । बिछुड़ी निज पुत्री को पाकर, मन में अति ही हरषाये ॥ घर चलने को कहा तभी, दीक्षा ली हर्ष महान से ॥ सती ... ॥११॥ निजस्वरूप विश्रान्तिमयी, इच्छा निरोध तप धारा था । रत्नत्रय की पावन गरिमामय, निजरूप सम्भाला था ॥ 118 मगन हुयी निज में ही ऐसी, मैं स्त्री हूँ भूल गयी । छूटी देह समाधिसहित द्वादशम स्वर्ग में देव हुयी ॥ पढ़ो - सुनो ब्रह्मचर्य धरो, सुख पाओ आतमज्ञान से ॥सती...॥१२॥ " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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