Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 96
________________ 94 वैराग्य पाठ संग्रह चेतो चेतन अब भी अवसर, पर का कोई दोष नहीं। भूल तजो हठ छोड़ो भाई, मिले न पर में तोष कहीं। जानो मानो सदा आचरो, तत्त्व सहज आनन्दमयी॥८॥जिससे पड़े नहीं पीछे पछताना, इसीलिए पहले सोचो। परमसत्य शिवमय सुन्दरतम परमब्रह्म अन्तर देखो। धारो-धारो सारभूत दृढ़, ब्रह्मचर्य ध्रुव ब्रह्ममयी।।९।।जिससे निर्मुक्ति-भावना जिनधर्म पाया है परम निर्मुक्त बनूँगा। निर्मुक्त हूँ स्वभाव से निर्मुक्त रहूँगा ।।टेक।। परभावों से अति भिन्न है शुद्धात्मा अपना। निज वैभव से आपूर्ण है ध्रुव आत्मा अपना ।। हो निर्विकल्प आत्मा हूँ अनुभव करूँगा । जिनधर्म...॥१॥ जब देह ही अपनी नहीं परिवार फिर कैसा ? कर्तृत्व ही पर का नहीं फिर भार हो कैसा ? निर्भार ज्ञातारूप हूँ ज्ञाता ही रहूँगा ।। मैं झौंक भार को भार में निर्भार रहूँगा। जिनधर्म...॥२॥ स्वामित्व कुछ पर का नहीं, सम्बन्ध नहिं पर से। निर्बन्ध एक शुद्ध हूँ नहीं बन्ध हो पर से। निज शान्त रस को वेदता निर्द्वन्द्व रहूँगा। जिनधर्म पाया है परम निर्मुक्त बनूँगा ।।३।। विपरीतता या न्यूनता नहिं निज स्वभाव में। पर की अपेक्षा है नहीं आतम स्वभाव में। हो निर्मोही सम्यक्त्वादिक से पुष्ट रहूँगा। जिनधर्म...॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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