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मोदन करो सब ही अहो, हम ब्रह्मचर्य धारें। जीवन तो धर्म के लिये, हम मौत स्वीकारें ॥ आराधना ही सुख स्वरूप मन में समाई । प्राणों पर खेल की, धर्म की रक्षा सुखदाई
आशीष ले माता-पिता से
बौद्ध मठ
गये ।
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प्रच्छन्न बौद्ध रूप में दर्शन सभी पढ़े। जैनों को शिक्षा पाने की थी सख्त मनाई ॥ प्राणों पर... ॥ ९ ॥
वैराग्य पाठ संग्रह
स्याद्वाद पढ़ाते श्लोक एक अशुद्ध हुआ । आचार्य थे बाहर गये, अकलंक शुद्ध किया । श्लोक शुद्ध करना हुआ, गजब दुखदाई | प्राणों पर खेल की, धर्म की रक्षा सुखदाई ॥१०॥ आचार्य को शंका हुई, कोई जैन होने की ।
प्रतिमा दिगम्बर रखकर, आज्ञा दी थी लाँघने की ॥ तब धागा ग्रीवा में लपेट, लाँघ गये भाई ॥ प्राणों पर... ॥ ११ ॥
॥८॥
फिर अर्द्ध रात्रि के समय, घनघोर स्वर हुआ ।
अरहंत - सिद्ध कहते हुये, सैनिक पकड़ लिया ।। होकर निडर बोले थे हम, जिनधर्म अनुयायी ॥ प्राणों पर...।।१२।।
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लालच दिये और भय दिखाये, पर नहीं डिगे।
श्रद्धान से जिनधर्म के किंचित् नहीं चिगे ॥ झुंझला कर निर्दय होकर, सजा मौत सुनाई ॥ प्राणों पर... || १३ || पर रात्रि को ही भागे, कारागार से दोई। टाले कभी टलती नहीं, भवितव्य जो होई ॥ पीछे दौड़ाये सैनिक अति ही क्रूरता छाई || प्राणों पर... १४ ॥ निकलंक बोले देखो भाई, आ रही सेना । हो धर्म की रक्षा, न कोई और कामना ।। छिप जाओ तुम तालाब में, मैं मरता हूँ भाई ॥ प्राणों पर...।। १५ ।।
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