Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 112
________________ 110 वैराग्य पाठ संग्रह इक रोज महल में बैठे, दासी ने आय बताया। तव मित्र बहुत घबड़ाये, इस क्षण ही तुम्हें बुलाया। कुछ छल को समझ न पाये, थे सरल परिणति धारी। वैसे ही दौड़े पहुँचे, पर वहाँ थी लीला न्यारी॥ जिनकी पावन दृढ़ता से, कुटिला नारी भी हारी ॥१॥ ज्यों सेठ गये थे अन्दर, दरवाजा बंद सु-कीना। आसक्ति भरी नारी ने, निर्लज्ज प्रदर्शन कीना॥ वह मित्र गया था बाहर, कपिला ने चाल विचारी। हो सेठ रूप पर मोहित, उसने की थी तैयारी ॥जिनकी ...॥२॥ फँस गये धर्म संकट में, तब सेठ विचार सु-कीना। इससे तो मरण भला है, निज शील बिना क्या जीना? तब हँसे वचन यों बोले, वे अनेकांत के धारी। मैं तो हूँ अरे नपुंसक, तूने पहिले न विचारी। जिनकी ...॥३॥ तत्क्षण ही घृणाभाव कर, हट गयी स्वयं ही पतिता। तब सेठ सहज घर आये, लेकर अपनी पावनता। पुरुषत्व शीलधारी का, नहीं होय कदापि विकारी। नहीं धर्म मार्ग से च्युत हो, रहते ज्ञानी अविकारी। जिनकी ...॥४॥ ओ भव्य समझना यों ही, आत्मा में शक्ति अनंता। पर ज्ञाता-दृष्टा ही है, नहीं होवे पर का कर्ता॥ आत्मन् अब भी तो चेतो, छोड़ो भ्रांति दुखकारी। कर्तृत्व-विकल्प नलाओ, तब सुख पाओअविकारी ।जिनकी ...॥५॥ इक रोज वसंतोत्सव में, जाते थे सब नर-नारी। अभया रानी भी जावे, कपिला भी जाये बेचारी॥ तब रथ में आती देखी, सुत गोद लिये एक नारी। अभया रानी ने पूछा, किसके सुत सुन्दर प्यारी।।जिनकी ...॥६|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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