Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 109
________________ 107 - वैराग्य पाठ संग्रह श्री अकलंक-निकलंक गाथा अकलंक अरु निकलंक दो थे सहोदर भाई। प्राणों पर खेल की, धर्म की रक्षा सुखदाई॥ टेक।। धनि-धनि हैं भोगों को न अंगीकार ही किया। बचपन में ही मुनिराज से ब्रह्मचर्य व्रत लिया। व्रत लेकर आनन्दमय जीवन की नींव धराई। प्राणों ...॥१॥ तत्त्वज्ञान के अभ्यास में ही चित्त लगाया। दुर्वासनाओं की जिन्हें, नहीं छू सकी छाया॥ दुर्मोहतम हो कैसे ? ज्ञान ज्योति जगाई। प्राणों ...।।२।। अज्ञान में ही कष्टमय, संयम अरे भासे। संयम हो परमानन्दमय, जहाँ ज्ञान प्रकाशे।। इससे ही भेदज्ञान कला मूल बताई ॥प्राणों पर...३।। बोद्धों का बोलबाला था, जिनधर्म संकट में। अत्याचारों से त्रस्त थे जिनधर्मी क्षण-क्षण में। जिनधर्म की प्रभावना की भावना आई ॥प्राणों पर...॥४|| माता-पिता ने जब रखा, प्रस्ताव शादी का। बोले बरवादी का है मूल, स्वांग शादी का॥ दिलवा कर ब्रह्मचर्य, तात ! क्या ये सुनाई ।।प्राणों पर...॥५॥ बोले पिता अष्टाह्निका, में मात्र व्रत दिया। हे तात ! तुमने कब कहा, हम पूर्णव्रत लिया। मुक्ति के मार्ग में नहीं होती है हँसाई ॥प्राणों पर...॥६॥ आजीवन पालेंगे, हम तो ब्रह्मचर्य सुखकारी। सौभाग्य से पाया है, रत्न ये मंगलकारी ।। भव रोग की इक मात्र ये ही साँची दवाई ॥प्राणों पर...॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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