Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 107
________________ 105 वैराग्य पाठ संग्रह छोड़ निमित्ताधीन दृष्टि निज भाव लखे सुख ही पावे। ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ बस, राग-द्वेष विनश जावे ॥३॥ तत्क्षण सर्प भयंकर देखा, मार गले में डाल दिया। क्रूर रौद्र परिणामों से, तब नरक सातवाँ बंध किया। अट्टहास कर घर आया, पर तीन दिनों तक व्यस्त रहा। समाचार देने चौथे दिन, सती चेलना पास गया। मोही पाप बंध करके भी देखो कैसा हरषावे। ज्ञाता....॥४॥ सुनकर दुखद भयानक घटना, भक्ति उर में उमड़ानी। त्याग अन्न जल उसी समय, उपसर्ग निवारण की ठानी। श्रेणिक बोला अरे प्रिये ! क्यों मुनि ने कष्ट सहा होगा। मेरे आने के तत्क्षण ही, सर्प दूर फैंका होगा। अज्ञानी क्या ज्ञानीजन का, अन्तर रूप समझ पावे।। ज्ञाता....॥५॥ बोली तुरन्त चेलना राजन्! यदि वे सच्चे गुरु होंगे। उसी अवस्था में अविचल, निजध्यान लीन बैठे होंगे। तुमने द्वेष भाव से भूपति, घोर पाप का बंध किया। मुनि पर कर उपसर्ग, स्वयं को स्वयं दुःख में डाल दिया। व्यर्थ कषायें करके प्राणी, खुद ही भव-भव दुख पावे।। ज्ञाता....॥६॥ आगे-आगे चले चेलना, उर दुख-सुख का मिश्रण था। कौतूहलमय विस्मय पूरित, श्रेणिक का अन्तस्तल था। परमशान्त निजध्यान लीन, मुनिवर को ज्यों ही देखा था। किया दूर उपसर्ग शीघ्र ही, श्रद्धा से नत श्रेणिक था। ज्ञानीजन तो पहले सोचे, मूरख पीछे पछतावे। ज्ञाता....॥७॥ धन्य मुनीश्वर साम्यभाव धर, धर्मवृद्धि दोनों को दी। श्रेणिक और चेलना में नहिं, इष्ट-अनिष्ट कल्पना की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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