Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 105
________________ वैराग्य पाठ संग्रह दो । बोली राजुल मत गालियाँ, मम शील को तुम सतवंती नारियों का केवल, एक पति ही हो । नाता जोड़ा मैंने अब केवल ज्ञायकभाव से । प्रभु सम ही भाऊँ भावना, छूयूँ विभाव से ॥७॥ व्यवहार में भी भाव से श्री नेमि स्वीकारे । दर्शाकर श्रेयो मार्ग वे, गिरनार पधारे ॥ उनका ही पावन मार्ग, अंगीकार है मुझे। उनके द्वारा त्यागे भोगों, की चाह नहीं मुझे || आनंदित हो मोदन करो, मैं होऊँ आर्यिका । छोडूं स्त्रीलिंग नानूँ, दुखमय बीज पाप का ॥ धारूँ निवृत्तिमय दीक्षा अति हर्षभाव से ॥ प्रभु....॥८॥ मंगलमय ऐसे अवसर में, आँसू ना बहाओ । आनंदमय जिनमार्ग, कुछ विकल्प मत लाओ || आदर्श रूप नेमि प्रभु का परभावों से है भिन्न आतम होता नहीं स्त्री-पुरुष व ध्रुव एक रूप ज्ञानमय है शुद्ध आत्मा || परमार्थ प्रतिक्रमण करो, सहज भाव से ॥ प्रभु....॥९॥ कुछ मोहवश संकोचवश, भवि चूक ना जाना । साधो परम उत्साह से, शंका नहीं लाना ॥ उत्कृष्ट समयसार से, कुछ अन्य नहीं है । अनुभव प्रमाण स्वयं करो, धोखा नहीं है । शुद्धात्मा के ध्यान में, सब कर्म नशायें। आत्मा बने परमात्मा गुण सर्व विलसायें ॥ अनुभूत- मग दर्शाया प्रभु, वीतरागभाव से ॥ प्रभु... ॥१०॥ अनुसरण करो । अनुभवन करो ॥ क्लीव आत्मा । Jain Education International For Private & Personal Use Only 103 www.jainelibrary.org

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