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सम्बोधन करके यों राजुल, गिरनार को गई । वन्दन कर नेमिनाथ को, वह आर्यिका हुई || नेमीश्वर तो मुक्ति गये, वह स्वर्ग को गई। पावन गाथा वैराग्यमय, विख्यात है हुई । प्रेरित करे भव्यों को, सम्यक् निवृत्ति मार्ग में । मैं भी विचरूँ साक्षात् प्रभु निर्ग्रन्थ मार्ग में ॥ हो सहज सफल, भावना अंतरंग भाव से । प्रभु सम ही भाऊँ भावना, छूयूँ विभाव से ॥ ११ ॥ श्री यशोधर गाथा
वैराग्य पाठ संग्रह
धन्य यशोधर मुनि - सी समता, मम परिणति में प्रगटावे । ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ बस, राग-द्वेष विनश जावे ॥ टेक ॥। एक दिवस जंगल में मुनिवर, आतम ध्यान लगाया है। जैन धर्म प्रति द्वेष धरे, श्रेणिक मृगया को आया है। किन्तु यत्न सब व्यर्थ हुये, कोई शिकार नहिं पाता है। तभी शिला पर श्री मुनिवर का, पावन रूप दिखाता है || जिनकी वीतरागमुद्रा लख, भव-भव के दुःख नश जावें ॥ ज्ञाता....॥१॥
जान चेलना के गुरु हैं, तो बदला लेने की ठानी। क्रूर शिकारी कुत्ते छोड़े, किंचित् दया न उर आनी ॥ उन ऋषिवर का साम्यभाव लख, वे कुत्ते तो शान्त हुये । किन्तु समझ कीलित कुत्तों को, भाव नृपति के क्रुद्ध हुये।। जैसी होनहार हो जिसकी, वैसी परिणति हो जावे ॥ ज्ञाता....॥ २॥
देखो सबका स्वयं परिणमन, निमित्त नहीं कुछ करता है। नहीं प्रेरणा, मदद, प्रभावित कोई किसी को करता है || वस्तु स्वभाव न जाने मूरख, व्यर्थ खेद अभिमान करे । ठाने उद्यम झूठे जग में, सदाकाल आकुलित रहे ||
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