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आत्म-भावना (तर्ज- मेरी भावना)
निजस्वभाव में लीन हुए, तब वीतराग सर्वज्ञ हुए । भव्य भाग्य अरु कुछ नियोग से, जिनके वचन प्रसिद्ध हुए || १ || मुक्तिमार्ग मिला भव्यों को, वे भी बंधन मुक्त रहें । उनमें निजस्वभाव दर्शकता, देख भक्ति से विनत रहें ॥ २ ॥ वीतराग सर्वज्ञ ध्वनित जो, सप्त तत्त्व परकाशक है। अविरोधी जो न्याय तर्क से मिथ्यामति का नाशक है || ३ ||
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वैराग्य पाठ संग्रह
नहीं उल्लंघ सके प्रतिवादी, धर्म अहिंसा है जिसमें । आत्मोन्नति की मार्ग विधायक, जिनवाणी हम नित्य नमें ॥ ४ ॥
विषय कषाय आरम्भ न जिनके, रत्नत्रय निधि रखते हैं । मुख्य रूप से निज स्वभाव, साधन में तत्पर रहते हैं ||५|| अट्ठाईस मूलगुण जिनके सहजरूप से पलते हैं। ऐसे ज्ञानी साधु गुरु का, हम अभिनन्दन करते हैं ॥ ६ ॥
उन सम निज का हो अवलम्बन, उनका ही अनुकरण करूँ । उन्हीं जैसी परिचर्या से आत्मभाव को प्रकट करूँ ||७||
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अष्ट मूलगुण धारण कर, अन्याय अनीति त्यागूँ मैं । छोड़ अभक्ष्य सप्त व्यसनों, को पंच पाप परिहारूँ मैं ||८|| सदा करूँ स्वाध्याय तत्त्वनिर्णय सामायिक आराधन । विनय युक्ति और ज्ञानदान से, राग घटाऊँ मैं पावन ॥ ९ ॥ जितनी मंद कषाय होय, उसका न करूँ अभिमान कभी । लक्ष्य पूर्णता का अपनाकर, सहूँ परीषह दुःख सभी ॥ १० ॥ गुणीजनों पर हो श्रद्धा, व्यवहार और निश्चय सेवा | उनकी करें दुःखी प्रति करुणा, हमको होवे सुख देवा ॥ ११ ॥
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