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सम्बोधनाष्टक
झूठे सर्व विकल्प, शरण है एक ही निर्विकल्प आनन्दमयी, प्रभु शाश्वत है अत्यन्ताभाव सदा फिर कोई क्या कर सकता। व्यर्थ विकल्पों से उपजी क्या पीड़ा हर सकता || २ || द्रव्यदृष्टि से देखो तुम तो सदाकाल सुखरूप । परभावों से शून्य सहज चिन्मात्र चिदानन्द रूप ॥३॥ नहीं सूर्य में अंधकार त्यों दुःख नहिं ज्ञायक में । दुःख का ज्ञाता कहो भले, पर ज्ञायक नहीं दुःख में ||४|| ज्ञायक तो ज्ञायक में रहता, ज्ञायक ज्ञायक ही । गल्प नहीं यह परम सत्य है, अनुभव योग्य यही ॥५॥ भूल स्वयं को व्यर्थ आकुलित हुए फिरो भव में । जानो जाननहार स्वयं आनन्द प्रगटे निज
में || ६ ||
वैराग्य पाठ संग्रह
हुआ न होगा कोई सहाई झूठी आस तजो । नहीं जरूरत भी तुमको अब अपनी ओर लखो ॥७॥ पूर्ण स्वयं में तृप्त स्वयं में आप ही आप प्रभो । सहज मुक्त हो, स्वयं सिद्ध हो, जाननहार रहो ॥ ८ ॥ जिनधर्म
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शुद्धातम । परमातम ॥१॥
जिनधर्म ही भ्रममूल नाशक अहो मंगल जगत में । जिनधर्म ही शिवपथ प्रकाशक अहो उत्तम जगत में ॥ १ ॥ सम्यक् अहिंसामय धरम ही शरणभूत सु जानियो । निजभाव भासक कर्म नाशक जिनधरम पहिचानियो ॥ २ ॥ रत्नत्रयमय यह धर्म उत्तम क्षमादि स्वरूप है। निरपेक्ष पर से सहज स्वाश्रित परम आनन्दरूप है ||३||
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