Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 93
________________ वैराग्य पाठ संग्रह जिनधर्म धारे तृप्ति हो निज माँहिं निज से सहज ही । निर्वृत्त आस्रव से सहज विज्ञानघन हो सहज ही ॥४॥ भवताप नाशे गुण प्रकाशे मुक्ति पद दातार है । स्वानुभवमय जिनधरम ही सर्व मंगलकार है ॥५॥ महाभाग्य सु पाइयो मैंने अलौकिक जिनधरम । निशंक हो निर्ग्रन्थ हो प्रभुवर प्रभावँ जिनधरम || ६ || भो सुखार्थी सहज समझो तत्त्व मंगलमय अहो । भो मुमुक्षु सहज धारो धर्म मंगलमय स्वार्थमय संसार में निज स्वार्थसिद्धि सु मध्यस्थ हो चारित्र हो, परभाव सब तज नहीं चूक जाना मोहवश अवसर मिला दुर्लभ अहो । निजभाव की आराधना से है सुलभ निजपद अहो ॥ ९ ॥ अहो ॥७॥ Jain Education International 91 अक्षय तृतीया अक्षय तृतीया पर्व है मंगलमय अविकार | ऋषभदेव मुनिराज का हुआ प्रथम आहार ।। दीक्षा लेकर ऋषभ मुनीश्वर छह महीने उपवास किया। फिर आहार निमित्त ऋषीश्वर जगह जगह परिभ्रमण किया ॥ १ ॥ कोई हाथी घोड़े वस्त्राभूषण रत्नों के भर थाल । ले सन्मुख आदर से आवें, देख साधु लौटें तत्काल ॥ २॥ नहीं जाने आहार - विधि, इससे सब ही लाचार हुए। अन्तराय का उदय रहा, तेरह महीने नौ दिवस हुए || ३ || धन्य मुनीश्वर धन्य आत्मबल आकुलता का लेश नहीं । तृप्त स्वयं में मग्न स्वयं में किंचित् भी संक्लेश नहीं ॥ ४ ॥ उदय नहीं हो दुःख का कारण, यदि स्वभाव का आश्रय हो । निज से च्युत हो दुःखी रहे, तो फिर उपचार उदय पर हो ॥५॥ For Private & Personal Use Only कीजिए । दीजिए ||८|| www.jainelibrary.org

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