Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 90
________________ 88 वैराग्य पाठ संग्रह नाहीं उपजे नाहीं विनशे। बंध मुक्ति को कदा न परसे।। भिन्न सदैव रहें ये स्वाँग। ज्ञायक तो ज्ञायक ही जान ॥१२॥ परम पारिणामिक अविकार। धीर वीर गम्भीर उदार ।। स्वयंसिद्ध शाश्वत परमात्म। अद्भुत प्रभुतामय शुद्धात्म ॥१३॥ द्रव्यदृष्टि से प्रत्यक्ष देख। उपज्यो उर आनन्द विशेष ॥ मिटी भ्रान्ति प्रगटी सुख शान्ति। निज में ही पाई विश्रान्ति॥१४॥ मिथ्या कर्तृत्व भाव पलाय। राग-द्वेष सब गये विलाय॥ सहजहिं जाननहार जनाय। अद्भुत चिद्विलास विलसाय ॥१५॥ स्वतः स्वयं में तृप्त हूँ, विनशें सर्व विभाव। रहँसहज निर्ग्रन्थ नित, भाऊँ शुद्ध स्वभाव।। नित्य-भावना मैं एक ज्ञायकभाव भाऊँ अन्य वांछा कुछ नहीं। अनुभूति ज्ञायकभावमय वर्ते सुकाल अनन्त ही।।१।। सविकल्पता में हे प्रभो ! पुरुषार्थ ऐसा ही करूँ। चैतन्य प्राप्ति का निमित्त अरहंत का दर्शन करूँ।।२।। चिन्तन सुसिद्ध स्वरूप का कर भेदज्ञान हृदय धरूँ। निष्कर्म ध्रुव अरु अचल अनुपम स्वयं सिद्धस्वरूप हूँ।।३।। कर वंदना आचार्य की नित द्रव्य एवं भाव से। निर्ग्रन्थ दीक्षा की अहो हो भावना अतिचाव से ।।४।। उपाध्याय गुरुवर के समीप सुज्ञान का अभ्यास हो। संतुष्टि हो आराधना में नहीं पर की आस हो।५।। हो साधुजन की संगति अरु असंगपद की दृष्टि हो। जग से उदासी हो सहज वैराग्यमय मम सृष्टि हो॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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