Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 86
________________ 84 वैराग्य पाठ संग्रह अब भेदज्ञान की कला अन्तर में प्रगटाई।। आराधना की शुभ घड़ी यह भाग्य से पायी ।।१०॥ करके स्वांग हितैषी का नहीं मुझको बहकाओ। देके प्रलोभन अथवा भय न मुझको फँसाओ। तजकर तुम मिथ्या मोह कुछ विवेक जगाओ। होकर आनन्दित संयम की अनुमोदना लाओ।। संयम की अमृतधारातो सभी को सुखदायी।आराधना... ॥११॥ सुनकर विरागमय वचन आनन्द छा गया। दुर्मोह का वातावरण सब दूर हो गया।। आसन्न भव्य भी सहज ही साथ चल दिए। निर्ग्रन्थता के मार्ग का संकल्प शुभ किए। धनि-धनि कहें जयवंत हो जिनधर्म सुखदायी।आराधना.।।१२।। बृहत् साधु स्तवन (दोहा) इस अशरण संसार में, शरण रूप व्यवहार । नमहुँ दिगम्बर गुरु चरण, गुण गाऊँ सुखकार ।।१।। विषय कषायारम्भ बिन, ज्ञान-ध्यान-तप लीन। निर्विकार मुद्रा सहज, करे मोहमल छीन ॥२॥ निज निर्ग्रन्थ रूप का ध्यान, प्रचुर स्वसंवेदन सुखदान । नग्न बाह्य में भी अविकार, साधुदशा जग में सुखकार ॥३॥ तीन कषाय चौकड़ी नाशी, भव तन भोग विरक्ति विकासी। तृप्त रहें अपने में आप, चर्या सहज होय निष्पाप ।।४।। उपजें नहिं रागादि विकार, जीव विराधन नहीं दुःखकार। वर्ते सहज ही यत्नाचार, पले अहिंसा व्रत सुखकार ।।५।। निज में मग्न मौन अविकार, मृषा कथन होवे न लगार। क्वचित् कदाचित् सत्योपदेश, नहिं आसक्ति वहाँ भी लेश॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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