Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 84
________________ 82 शुद्धात्म-आराधना आराधना की शुभ घड़ी यह भाग्य से पायी। आराधना शुद्धात्मा की ही मुझे भायी ॥ टेक ॥ करके विराधन तत्त्व का बहु क्लेश हैं पाये । सौभाग्य से नरभव मिला जिननाथ ढिंग आये ॥ वाणी सुनी जिनराज की कुछ होश हुआ है। उपयोग निर्णय में लगा अवबोध हुआ है ॥ जागा विवेक अंतरंग में जागृति आयी | आराधना...॥१॥ शुद्धात्मा अपना परम आदेय है भासा । मंगलस्वरूप चित्स्वरूप सहज प्रतिभासा ॥ संयोग देह कर्म आदि भिन्न लखाये । मोहादि सब दुर्भाव दुःख के हेतु दिखाये || आह्लादमयी आत्मानुभूति आज है आयी । आराधना...॥२॥ निर्भान्त हुँ, निःशंक हूँ, शुद्धात्मा प्रभु है। स्वभाव से ही ज्ञान आनन्दमय सदा विभु है | सत्रूप अहेतुक नहीं जन्में नहीं मरता । सामर्थ्य से अपनी सदा ही परिणमन करता ॥ समझा स्वरूप स्वावलम्बी वृत्ति जगायी | आराधना...॥३॥ स्वाधीन अखण्ड प्रतापवान है प्रभु सदा । निर्बन्ध है पर से नहीं सम्बन्ध हो कदा ॥ पर से नहीं आता कभी कुछ भ्रान्ति मिट गयी । निज में ही निज की पूर्णता स्वयमेव दिख गयी ॥ स्वाश्रय से पराश्रय की बुद्धि सहज नशायी । आराधना...||४|| रे अग्नि में से शीतता आती नहीं जैसे । और अग्नि भी घृत से नहीं बुझती कभी जैसे ॥ त्यों इन्द्रिय भोगों से नहीं होता सुखी कभी । वैराग्य पाठ संग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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