Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 54
________________ 52 वैराग्य पाठ संग्रह स्वार्थ पूर्ण मय इस जंगल में, है सरिता भरपूर । इसने तेरे पथ को अबतक, किया बहुत ही दूर || इधर क्यों व्यर्थ ढुलकता है ? अरे क्यों इधर भटकता है || १२ || पहले तो तू इस अटवी में, आया था कर प्यार । अब फिर क्यों सिर पकड़-पकड़ कर, रोता है हरबार ।। खड़ा क्यों व्यर्थ ढुलकता है, अरे क्यों इधर भटकता है || १३ ॥ जीवन - शकट भयानक तेरा, उलझ गया अब आय । पागल बना मोह माया में, विषय-वृक्ष फल खाय ॥ हृदय में यही खटकता है, अरे क्यों इधर भटकता है ? || १४ || तेरी निधि का रक्षक भाई, यहाँ न दीखे कोय । लगे आग तब कूप खुदाये, कैसे रक्षा होय ॥ खड़ा क्यों यहाँ सिसकता है ? अरे क्यों इधर भटकता है ।। १५॥ यहाँ बैठ तू भूल गया है, अपने पथ की राह । आगे तेरा क्या होवेगा, जरा नहीं परवाह । हृदय में यही कपटता है, अरे क्यों इधर भटकता है ? ||१६|| इस जंगल में जो कोई आया, वही रहा पछताय । किन्तु आज तू यहाँ बैठकर, मौजें रहा उड़ाय ।। विषय-विष यहाँ महकता है, अरे क्यों इधर भटकता है ||१७|| जरा देख तू आँख खोलकर, मत मन माहीं फूल । तेरे पथ में बिछे हुए हैं, कंटक - वृक्ष बबूल ॥ अकड़ में व्यर्थ मटकता है, अरे क्यों इधर भटकता है ॥ १८ ॥ इस अटवी में आ पथ भूला, बना प्रचुर अज्ञान । मोह लुटेरा एक क्षणक में, नाश करे विज्ञान ॥ अभी वह आन टपकता है, अरे क्यों इधर भटकता है ॥ १९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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