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वैराग्य पाठ संग्रह
अनन्तकाल निगोद अटका निकस थावर तन धरा। भू वारि तेज बयार तै कै बेइन्द्रिय त्रस अवतरा ।। फिर हो तिइन्द्री वा चौइन्द्री पंगेन्द्री मन बिन बना। मनयुत मनुष गति हो न दुर्लभ ज्ञान अति दुर्लभ घना ॥११॥ जिय न्हान धोना तीर्थ जाना धर्म नाहीं जप जपा। तन नग्न रहना धर्म नाहीं धर्म नाहीं तप तपा॥ वर धर्म निज आतमस्वभावी ताहि बिन सब निष्फला। 'बुधजन' धरम निजधार लीना तिनहिं कीना सब भला ॥१२॥
(दोहा) अथिराशरण संसार है, एकत्व अन्यत्वहि जान। अशुचि आस्रव संवरा, निर्जर लोक बखान ॥१३॥ बोधरु दुर्लभ धर्म ये, बारह भावन जान। इनको भावै जो सदा, क्यों न लहै निर्वान ॥१४॥
षोडश कारण विंशतिका भावना सहज होय स्वामी, भावना सहज होय स्वामी। स्वयं स्वयं में मग्न रहूँ, तुम-सम त्रिभुवन नामी॥ नहीं स्वप्न में भी अपना, परमाणुमात्र भासे, सदा सहज अनुभूतिरूप, आतम ही प्रतिभासे। एक शुद्ध ज्ञायक स्वरूप परमानन्दमय आतम, स्वयंसिद्ध शाश्वत परमातम जाना शुद्धातम ।।१।। निरतिचार निर्मल सम्यग्दर्शन वर्ते सुखमय, निजस्वभाव में सहज निशंकित निर्वांछक निर्भय। ज्ञेयमात्र ही रहें ज्ञेय, नहीं ग्लानि उपजावे, तत्त्वदृष्टि हो उपगूहन जीवन में बर्तावे॥२॥ चित्त-चंचलता मिटे स्वयं में ही थिरता पाऊँ, वात्सल्य से आतम ही उत्कृष्टपने भाऊँ।
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