________________
68
वैराग्य पाठ संग्रह दशधर्म द्वादशी अहो दशलक्षण धर्म महान, अहो दशलक्षण धर्म महान। धर्म नहीं दशरूप एक, वीतराग-भावमय जान। सम्यग्दर्शन सहित परम आनन्दमय उत्तम मान ।।टेक।। तत्त्वदृष्टि से देखें जग में इष्ट-अनिष्ट न कोई, सुख-दुख-दाता-मित्र-शत्रु की व्यर्थ कल्पना खोई। स्वयं-स्वयं में सहज प्रगट हो क्षमाभाव अम्लान ।।अहो...॥१॥ जो दीखे सब ही क्षणभंगुर किसका मान करे, पल में छोड़ हमें चल देता अपना जिसे कहे। ज्ञानमात्र आतम-अनुभवमय प्रगटे मार्दव आन ।।अहो...।।२।। कौन किसे ठगता इस जग में अरे स्वयं ठग जाय, पर्ययमूढ़ हुआ मूरख विषयों में काल गँवाय। भेदज्ञान कर अंतरंग में हो आर्जव सुखखान ।।अहो...॥३॥ अशुचिरूप मिथ्यात्व कषायें तज, विवेक उर लावें, व्यसन, पाप, अन्याय, अभक्ष को त्याग पात्रता पावें। परमशुद्ध आतम-अनुभव ही शौचधर्म पहिचान ॥अहो...॥४॥ गर्हित निंद्य और हिंसामय भाव वचन परिहार, परम सत्य ध्रुव ज्ञायक जानो अभूतार्थ व्यवहार। ज्ञायकमय अनुभूति लीनता सत्यधर्म अभिराम ॥अहो...।।५।। अहो अतीन्द्रिय शुद्धातम सुख ज्ञान अतीन्द्रिय जान, इन्द्रिय विषय-कषायें जीतो हो हिंसा की हानि। आत्मलीनतामय संयम से ही पावें शिवधाम॥अहो...॥६॥ अनशनादि बहिरंग प्रायश्चित आदि अंतरंग जान, निजस्वरूप में विश्रान्ति इच्छानिरोध तप मान। तप अग्नि प्रज्वलित होय तब जले कर्म दुःखखान ॥अहो...॥७॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org