Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 75
________________ 73 वैराग्य पाठ संग्रह भव का भ्रमण मिटाने योग्य, क्षपक श्रेणी चढ़ जाने योग्य। तजो अयोग्य करो अब योग्य, मुक्तिदशा प्रगटाने योग्य ॥७॥ आया अवसर सबविधि योग्य, निमित्त अनेक मिले हैं योग्य। हो पुरुषार्थ तुम्हारा योग्य, सिद्धि सहज ही होवे योग्य ॥८॥ प्रभावना जिनशासन की प्रभावना निर्दोष हो स्वामी। रे अन्तर्मन की भावना निर्दोष हो स्वामी ।।टेक।। श्रद्धान हो सम्यक् सहज अभिप्राय निर्मल हो, आराधनामय साधनामय भाव निश्छल हो। जगख्याति पूजालाभ की नहीं चाहहोस्वामी।।रे अन्तर्मन...॥१॥ नहीं करके पक्ष निश्चय का स्वच्छन्द हो जीवन, नहीं पक्षवश व्यवहार के हो ज्ञान-विराधन। हो मैत्री ज्ञान-विराग की आनन्दमय स्वामी॥रे अन्तर्मन...॥२॥ पक्षातिक्रान्त समयसार प्राप्त हो सबको, चैतन्यमय शुद्धात्मा अनुभूत हो सबको। अतीन्द्रिय ज्ञानानन्दमय परिणाम हो स्वामी॥रे अन्तर्मन...॥३।। परद्रव्यों में नहीं कल्पना अच्छे बुरे की हो, पीवें अतीन्द्रिय ज्ञानरस जिनवर जितेन्द्रिय हो। इन्द्रिय विषयों से हो विरक्ति स्वभाविक स्वामी॥रे अन्तर्मन...॥४|| समझें निमित्त अकिंचित्कर हो निरवलम्बी, निरपेक्ष हों निश्चिंत हों निर्द्वन्द्व स्वस्थ भी। नित ही रहें निज में ही निज से तृप्त हे स्वामी।। रे अन्तर्मन...॥५॥ नहीं पुण्य-पाप के उदय में हर्ष-खेद हो, अरि-मित्र निन्दा-स्तुति में कुछ न भेद हो। हो मोह-क्षोभ-शून्य शुद्ध आचरण स्वामी॥रे अन्तर्मन...॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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