________________
74
वैराग्य पाठ संग्रह
नहीं जन्म जयन्ती में ही हम हो जावें मगन, समझें स्वयं को स्वयं सिद्ध अनादिनिधन । निर्लिप्त उदासीन ज्ञातारूप हों स्वामी ॥ रे अन्तर्मन की भावना निर्दोष हो स्वामी ॥७॥ मोही जनों की ममता से नित सावधान हों,
धनि धनि सिर ऊपर ज्ञानी गुरु विराजमान हों।
-
उनके अनुशासन में रहकर स्वतंत्र हों स्वामी ॥ रे अन्तर्मन... ॥८॥
--
अबद्धस्पृष्ट अनन्य नियत और असंयुक्त, अविशेष देखें आत्मा होवें सहज ही मुक्त | परमार्थ ही हो स्वार्थ, हो निस्वार्थ हे स्वामी ॥ रे अन्तर्मन... ॥ ९ ॥ सब जीव सिद्ध सम दिखें नहिं राग-द्वेष हो, ज्ञेयों से भिन्न ज्ञायक की महिमा विशेष हो । हो उपादेय आत्मा को आत्मा स्वामी ।। रे अन्तर्मन... ॥ १० ॥ जाने निज परमब्रह्म ब्रह्मरूप में रमे, निर्दोष ब्रह्मचर्य हो दुर्वासना भगे । आदर्श प्रेरणा स्वरूप हो चरण स्वामी ॥ रे अन्तर्मन...॥ ११ ॥ होते जावें विज्ञानघन, रागादि क्षीण हों,
नहीं दीन हों स्वाधीन पर से उदासीन हों। निकलंक हों निष्पाप हों निर्ग्रन्थ हों स्वामी ॥ रे अन्तर्मन...॥१२॥ एकाकी निर्भय निज में ही संतुष्ट रहेंगे, शुद्धात्मा के ध्यान से सब कर्म भगेंगे। प्रगटे सहज अक्षय परम प्रभुता अहो स्वामी ॥ रे अन्तर्मन...॥१३॥
रहकर भी मौन सहज मुक्ति मार्ग कहेंगे, धनि धनि अनुभूत मार्ग के प्रणेता बनेंगे । होगी प्रभावना अहो परिपूर्ण हो स्वामी ॥ रे अन्तर्मन... ॥१४॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org