Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 68
________________ 66 वैराग्य पाठ संग्रह ८. स्त्री परीषह स्वानुभूति रमणी में तृप्त, करे न नारी चित संतप्त। ब्रह्मचर्य से चिगें न लेश, परमधीर मुनिवर जगतेश॥ ९. चर्या परीषह अनियत वासी करें विहार, ईर्या समिति सहित अविकार। चर्या परीषह सों नहिं डरें, मुक्ति मार्ग जग में विस्तरें। १०. आसन परीषह अंतर समता से नहिं चिगें, बाहर आसन से नहिं डिगे। धनि मर्यादा पालन-हार, धर्मतीर्थ विस्तारन-हार॥ ११. शयन परीषह भूमि काष्ठ पाषाण पै सोवें, सावधान नहिं गाफिल होवें। निद्रा अल्प न करवट फेरें, अन्तर्मुख हो निजपद हेरें। १२. आक्रोश परीषह सुन दुर्वचन क्षमा उर लावें, ज्ञानी मुनि आक्रोश न आवें। धन्य-धन्य सबके उपकारी, वन्दनीय चैतन्य-विहारी॥ १३. बध-बंधन परीषह पापोदय में कोई मारे, बांधे अग्नि में परजारे। तहाँ तपोधन क्षोभ न करते, ध्यान विपाकविचय वे करते। १४. याचना परीषह निज में ही संतुष्ट यतीश्वर, पर की चाह न करते गुरुवर । नहीं औषधि भी वे याचे, परम विरक्त शान्त रस राचें। १५. अलाभ परीषह पर से लाभ न हानि मानें, सहज पूर्ण प्रभुता पहिचानें। पर-अलाभ प्रति सहज उपेक्षा, भावें वे द्वादश अनुप्रेक्षा॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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