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वैराग्य पाठ संग्रह
१६. रोग परीषह रोगादिक देहाश्रित जानें, कायर होकर दुःख नहिं मानें। तप से कर्म निरित करते, क्लेश जगत के भी वे हरते॥
१७. तृणस्पर्श परीषह । काँटे आदि पैर में लगते, उड़कर, आँखों में भी चुभते। फिर भी पर-सहाय नहीं चाहें, सहज ज्ञानसिन्धु अवगाहें।
१८. मल परीषह आजीवन स्नान न करते, मलिन देह को भिन्न सु लखते। निर्मल आतम सदा निहारें, निर्मल सहज परिणति धारें।
१९. सत्कार-पुरस्कार परीषह नहीं सत्कार चाहें मुनि-ज्ञानी, निजपर रीति भिन्न पहिचानी। तिरस्कार नहिं करें किसी का, प्रभुतारूप लखें सबही का।
२०. प्रज्ञा परीषह ज्ञान विशिष्ट उग्र तप धारें, वादी देख हार स्वीकारें। महाविनय मुनि तदपि सु धारें, निजरत्नत्रय निधि विस्तारें।
२१. अज्ञान परीषह जब क्षयोपशम मंद जु होवे, शक्ति ज्ञान विशेष न होवे। भेदज्ञान से सुतप बढ़ावें, सहज पूर्ण शुद्धातम ध्यावें।
२२. अदर्शन परीषह जो ऋद्धि अतिशय नहीं होवें, तो भी निजश्रद्धा नहीं खोवें। तत्त्व विचार सहज ही करते, शुद्ध स्वरूप चित्त में धरते॥ ऐसे मुनिवर को शिर नावें, साक्षात् दर्शन कब पावें। यही भाव मन माँहीं आवें, धनि निर्ग्रन्थ दशा प्रगटावें। विषयों की अब नहीं कामना, शाश्वत पद की करूँ साधना। निजानन्द में तृप्त रहूँ मैं, अक्षय प्रभुता प्रगट करूँ मैं।
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