________________
59
वैराग्य पाठ संग्रह
अब तो रहूँ निर्जन वनों में, गुरुजनों के संग। शुद्धात्मा के ध्यानमय हो, परिणति असंग॥ निजभाव में ही लीन हो, मेदूं जगत-फेरी ।। निर्ग्रन्थता...॥५॥ कोई अपेक्षा हो नहीं, निर्द्वन्द्व हो जीवन। संतुष्ट निज में ही रहूँ, नित आप सम भगवन्॥ हो आप सम निर्मुक्त, मंगलमय दशा मेरी। निर्ग्रन्थता...॥६॥ अब तो सहा जाता नहीं, बोझा परिग्रह का। विग्रह का मूल लगता है, विकल्प विग्रह का॥ स्वाधीन स्वाभाविक सहज हो, परिणति मेरी ।। निर्ग्रन्थता...॥७॥
बारह भावना जेती जगत में वस्तु तेती अथिर परिणमती सदा। परिणमन राखन नाहिं समरथ इन्द्र चक्री मुनि कदा॥ सुत नारि यौवन और तन धन जानि दामिनि दमक सा। ममता न कीजे धारि समता मानि जल में नमक सा॥१॥ चेतन-अचेतन सब परिग्रह हुआ अपनी थिति लहै। सो रहै आप करार माफिक अधिक राखे ना रहै।। अब शरण काकी लेयगा जब इन्द्र नाहीं रहत हैं। शरण तो इक धर्म आतम याहि मुनिजन गहत हैं।२।। सुर नर नरक पशु सकल हेरे, कर्म चेरे बन रहे। सुख शासता, नहिं भासता, सब विपत्ति में अति सन रहे।। दुःख मानसी तो देवगति में, नारकी दुःख ही भरै। तिर्यंच मनुज वियोग रोगी शोक संकट में जरै॥३॥ क्यों भूलता, शठ फूलता है देख परिकर थोक को। लाया कहाँ ले जायगा क्या फौज भूषण रोक को॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org