________________
वैराग्य पाठ संग्रह
सहजसुखी हो प्रभो हास्य का काम नहीं है, निज में ही संतुष्ट न रति का नाम कहीं है। निजानन्द में नहीं अरति या खेद सु आवे, होवे नहीं वियोग शोक फिर क्यों उपजावे ॥५॥ लौकिक जन ही अरे हास्य में समय गँवावें, रत होवें सुख मान अरति कर फिर दुख पावें । अहो निशंकित आप स्वयं में निर्भय रहते, करें आपका जाप सर्व भय उनके भगते ॥६॥ निर्मल आत्मस्वभाव ज्ञान भी निर्मल रहता, लोकालोक विलोक जुगुप्सा कहीं न लहता । फैली धर्म सुवास वासना दूर भगावें, स्त्री पुरुष नपुंसक वेद नहीं उपजावें ॥७॥ परम ब्रह्ममय मंगलचर्या प्रभो आपकी, नहीं वेदना होवे किंचित् त्रिविध ताप की । भान हुआ जब निज स्वभाव का मूर्छा टूटी, बाह्य परिग्रह की वृत्ति भी सहजहि छूटी ॥ ८ ॥ पर केवल पर दिखे ग्रहण का भाव न आया, निस्पृह निज में तृप्त अलौकिक है प्रभु माया । चेतन मिश्र अचेतन परिग्रह सब ठुकराया, हुए अकिंचन आप पंथ निर्ग्रन्थ सुभाया ॥९॥ शुद्ध जीवास्तिकाय अलौकिक महल आपका, सहज ज्ञान साम्राज्य प्रगट है विभो आपका | नित्य शुद्ध सम्पदा खान है अन्तर माँहीं, पर से कुछ भी कभी प्रयोजन दीखे नाहीं ॥ १० ॥ स्वानुभूति रमणी है नित ही तृप्ति प्रदायी, ध्रुवस्वभाव ही सिंहासन है आनन्ददायी ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
57
www.jainelibrary.org