Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 56
________________ 54 वैराग्य पाठ संग्रह ज्ञान पच्चीसी सुर नर तिरियग योनि में, नरक निगोद भ्रमंत। महामोह की नींद सों, सोये काल अनन्त ॥१॥ जैसे ज्वर के जोर सों, भोजन की रुचि जाय। तैसे कुकरम के उदय, धर्म वचन न सुहाय ॥२॥ लगै भूख ज्वर के गये, रुचिसों लेय अहार। अशुभ गये शुभ के जगे, जानै धर्म विचार ॥३॥ जैसे पवन झकोरतें, जल में उठे तरंग। त्यों मनसा चंचल भई, परिग्रह के परसंग॥४॥ जहाँ पवन नहिं संचरै, तहाँ न जल-कल्लोल। त्यों सब परिग्रह त्यागते, मनसा होय अडोल ॥५॥ ज्यों का विषधर डसै, रुचिसों नीम चबाय। त्यों तुम ममता सों मढ़े, मगन विषयसुख पाय॥६|| नीम रसन परसै नहीं, निर्विष तन जब होय। मोह घटै ममता मिटै, विषय न बांछ कोय॥७॥ ज्यों सछिद्र नौका चढ़े, बूडहि अंध अदेख। त्यों तुम भवजल में परे, बिन विवेक धर भेख ॥८॥ जहाँ अखण्डित गुण लगे, खेवट शुद्ध विचार। आतम रुचि नौका चढ़े, पावहु भवजल पार ॥९॥ ज्यों अंकुश बिन मानें नहीं, महामत्त गजराज। त्यों मन तृष्णा में फिरे, गिनै न काज अकाज ॥१०॥ ज्यों नर दाव उपाय कैं, गहि आनै गज साधि। त्यों या मन-वशकरन कों, निर्मलध्यान समाधि॥११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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