Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 53
________________ वैराग्य पाठ संग्रह पथरीली यह भूमि भयानक, खड़े झाड़ झंखाड़ । तेरे सर पर खड़ा हुआ है, काल सिंह मुँह फाड़ ॥ अभी आ तुझे गटकता है, अरे क्यों इधर भटकता है ॥४॥ आगे तेरे महा भयानक, है दुर्गम पथ देख । फँसा आज तू बीच भंवर में, इसमें मीन न मेख ॥ देखकर हृदय धड़कता है, अरे क्यों इधर भटकता है ||५|| कई बार धोखा खाकर तू, खोया सब धन माल । बचा खुचा धन यहाँ खोयेगा, होगा अब कंगाल ॥ व्यर्थ तू यहाँ अटकता है, अरे क्यों इधर भटकता है ? || ६ || तू क्षण-सुख पाकर के मूरख, बैठा है सुख मान । किन्तु लुटेरा खड़ा सामने, लेकर तीर कमान ।। झपट सब रकम झपटता है, अरे क्यों इधर भटकता है ॥७॥ इस अटवी के गहन स्थल में, क्यों तू रहा लुभाय ? | बिछा जाल माया का यहाँ पर, सभी रहे पछताय ।। देखकर हृदय धड़कता है, अरे क्यों इधर भटकता है ॥८॥ इधर-उधर क्या देख रहा है, मनो विनोदी राग । इनके भीतर छुपी हुई है महा भयानक आग ॥ इन्हीं में महा कटुकता है, अरे क्यों इधर भटकता है ||९|| खाता ठोकर तू पथ-पथ पर, पाता है सन्ताप। इधर-उधर तू भटक-भटक कर आता अपने आप ॥ गठरिया यहीं पटकता है, अरे क्यों इधर भटकता है ॥१०॥ क्यों उन्मत्त भया है मूरख, आँख खोलकर देख । इस जीवन के पथ में तेरे, पड़ी भयानक रेख ॥ भाग्य हर जगह अटकता है, अरे क्यों इधर भटकता है ॥११॥ " Jain Education International For Private & Personal Use Only 51 www.jainelibrary.org

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