Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 45
________________ वैराग्य पाठ संग्रह " तत्त्व - दृष्टि हो अन्तरंग में, जो विलोकता स्वच्छ स्वरूप । दिखता उसको परभावों से, रहित एक निज शुद्ध स्वरूप ॥८॥ पर पदार्थ के इष्टयोग को, साधु समझते हैं आपत्ति । धनिकों के संगम को समझें, मन में भारी दुःखद विपत्ति ।। धन मदिरा के तीव्रपान से, जो भूपति उन्मत्त महान । उनका तनिक समागम भी तो, लगता मुनि को मरण समान ॥ ९ ॥ सुखदायक गुरुदेव वचन जो मेरे मन में करें प्रकाश । फिर मुझको यह विश्व शत्रु बन, भले सतत दे नाना त्रास ॥ दे न जगत भोजन तक मुझको, हो न पास में मेरे वित्त । देख नग्न उपहास करें जन, तो भी दुःखित नहीं हो चित्त ॥ १०॥ दुःख व्याल से पूरित भव वन, हिंसा अघद्रुम जहाँ अपार । ठौर-ठौर दुर्गति-पल्लीपति, वहाँ भ्रमे यह प्राणि अपार ॥ सुगुरु प्रकाशित दिव्य पंथ में, गमन करे जो आप मनुष्य । अनुपम-निश्चल मोक्षसौख्य को, पा लेता वह त्वरित अवश्य ॥ ११ ॥ साता और असाता दोनों कर्म और उसके हैं काज । इसीलिए शुद्धात्म तत्त्व से, भिन्न उन्हें माने मुनिराज ॥ भेद भावना में ही जिनका, रात - दिवस रहता है वास । सुख-दुःखजन्य विकल्प कहाँ से, रहते ऐसे भवि के पास || १२ || देव और प्रतिमा पूजन का, भक्ति भाव सह रहता ध्यान । सुनें शास्त्र गुरुजन को पूजें, जब तक है व्यवहार प्रधान || निश्चय से समता से निज में, हुई लीन जो बुद्धि विशिष्ट । वही हमारा तेज पुंजमय, आत्मतत्त्व सबसे उत्कृष्ट ॥ १३ ॥ वर्षा हरे हर्ष को मेरे, दे तुषार तन को भी त्रास । तपे सूर्य मेरे मस्तक पर, काटें मुझको मच्छर डांस || Jain Education International For Private & Personal Use Only 43 www.jainelibrary.org

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