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वैराग्य पाठ संग्रह सर्वव्रतों में चक्रवर्ती अरु, सब धर्मों में सार कहा। अनुपम महिमा ब्रह्मचर्य की, शिवमारग शिवरूप अहा।। ब्रह्मचर्य धारी ज्ञानी के, निजानन्द की झरे झड़ी।ब्रह्म.॥६॥ पर-स्त्री संग त्याग मात्र से, ब्रह्मचर्य नहिं होता है। पंचेन्द्रिय के विषय छूट कर, निज में होय लीनता है।
अतीचार जहाँ लगे न कोई, ब्रह्म भावना घड़ी-घड़ी॥ब्रह्म.॥७॥ सर्व कषायें अब्रह्म जानो, राग कुशील कहा दुखकार। सर्व विकारों की उत्पादक, पर-दृष्टि ही महा विकार ।। द्रव्यदृष्टि शुद्धात्म लीनता, ब्रह्मचर्य सुखकार यही ॥ब्रह्म.॥८॥ सबसे पहले तत्त्वज्ञान कर, स्वपर भेद-विज्ञान करो। निजानन्द का अनुभव करके, भोगों में सुखबुद्धि तजो।। कोमल पौधे की रक्षा हित, शील बाढ़ नौ करो खड़ी॥ब्रह्म.॥९॥ समता रस से उसे सींचना, सादा जीवन तत्त्व विचार। सत्संगति अरु ब्रह्म भावना, लगे नहिं किंचित् अतिचार ।। कमजोरी किंचित् नहीं लाना, बाधायें हों बड़ी-बड़ी|ब्रह्म.॥१०॥ मर्यादा का करें उल्लंघन, जग में भी संकट पावें। निज मर्यादा में आते ही, संकट सारे मिट जावें।। निजस्वभाव सीमा में आओ, पाओ अविचल मुक्ति मही॥ब्रह्म.॥११॥ चिंता छोड़ो स्वाश्रय से ही, सर्व विकल्प नशायेंगे। कर्म छोड़ खुद ही भागेंगे, गुण अनन्त प्रगटायेंगे। 'आत्मन् निज में ही रम जाओ, आई मंगल आज घड़ी॥ब्रह्म.॥१२॥
तृष्णावान को कोई सुखी करने में समर्थ नहीं और संतोषी को कोई दुखी करने में समर्थ नहीं।
विपरीत-विचार विकार का जनक है और तत्त्व-विचार विकार के नाश का बुद्धिपूर्वक उपाय है।
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