Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 28
________________ वैराग्य पाठ संग्रह है शाश्वत अकृत्रिम वस्तु, ज्ञानस्वभावी आत्मा । जो आतम आराधन करते, बनें सहज परमात्मा ॥ परभावों से भिन्न निहारो, आप स्वयं भगवंत है ॥ धन्य...॥ १५ ॥ अपूर्व अवसर 26 आवे कब अपूर्व अवसर जब, बाह्यान्तर होऊँ निर्ग्रन्थ । सब सम्बन्धों के बन्धन तज, विचरूँ महत् पुरुष के पंथ ॥ १ ॥ सर्व-भाव से उदासीन हो, भोजन भी संयम के हेतु । किंचित् ममता नहीं देह से, कार्य सभी हों मुक्ती सेतु ॥२॥ प्रगट ज्ञान मिथ्यात्व रहित से, दीखे आत्म काय से भिन्न । चरितमोह भी दूर भगाऊँ, निज स्वभाव का ध्यान अछिन्न ॥३॥ जबतक देह रहे तबतक भी, रहूँ त्रिधा मैं निज में लीन । घोर परीषह उपसर्गों से, ध्यान न होवे मेरा क्षीण ॥ ४ ॥ संयम हेतु योग प्रवर्तन, लक्ष्य स्वरूप जिनाज्ञाधीन । क्षण-क्षण चिन्तन घटता जावे, होऊँ अन्त ज्ञान में लीन ||५|| राग-द्वेष ना हो विषयों में, अप्रमत्त अक्षोभ सदैव । द्रव्य-क्षेत्र अरु काल-भाव से, विचरण हो निरपेक्षित एव ॥ ६ ॥ क्रोध प्रति मैं क्षमा संभारूँ, मान तजूँ मार्दव भाऊँ । माया को आर्जव से जीतूं, वृत्ति लोभ नहिं अपनाऊँ ||७|| उपसर्गों में क्रोध न तिलभर, चक्री वन्दे मान नहीं । देह जाय किञ्चित् नहिं माया, सिद्धि का लोभ निदान नहीं ॥ ८ ॥ नग्न वेष अरु केशलोंच, स्नान दन्त धोवन का त्याग । नहीं रुचि शृङ्गार प्रति, निज संयम से होवे अनुराग ॥ ९ ॥ शत्रु-मित्र देखूँ न किसी को, मानामान में समता हो । जीवन-मरण दोऊ सम देखूँ, भव- शिव में न विषमता हो ॥ १० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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