Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 26
________________ 24 वैराग्य पाठ संग्रह रुचि न लगे यदि कहीं तुम्हारी, एक बार निज को देखो । खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु से निज महिमा को देखो || भ्रांति मिटेगी, शांति मिलेगी, सहज प्रतीति आयेगी। समाधान निज में ही होगा, आकुलता मिट जायेगी || चूक न जाना स्वर्णिम अवसर, करो निजातम का निश्चय ॥ आत्मन् ! अपनी वैभव गाथा, सुनो परम आनन्दमय । आत्मन् ॥१०॥ जिनमार्ग कितना सुन्दर, कितना सुखमय, अहो सहज जिनपंथ है। धन्य धन्य स्वाधीन निराकुल, मार्ग परम निर्ग्रन्थ है ॥ टेक ॥ श्री सर्वज्ञ प्रणेता जिसके, धर्म पिता अति उपकारी । तत्त्वों का शुभ मर्म बताती, माँ जिनवाणी हितकारी । अंगुली पकड़ सिखाते चलना, ज्ञानी गुरु निर्ग्रन्थ हैं ॥ धन्य... ॥ १ ॥ देव - शास्त्र - गुरु की श्रद्धा ही, समकित का सोपान है । महाभाग्य से अवसर आया, करो सही पहिचान है || पर की प्रीति महा दुखःदायी, कहा श्री भगवंत है ॥ धन्य...॥२॥ निर्णय में उपयोग लगाना ही, पहला पुरुषार्थ है । " तत्त्व विचार सहित प्राणी ही समझ सके परमार्थ है ।। भेद ज्ञान कर करो स्वानुभव, विलसे सौख्य बसंत है ॥ धन्य...॥३॥ ज्ञानाभ्यास करो मनमाहीं, विषय-कषायों को त्यागो । कोटि उपाय बनाय भव्य, संयम में ही नित चित पागो ॥ ऐसे ही परमानन्द वेदें, देखो ज्ञानी संत हैं | धन्य... ॥ ४ ॥ रत्नत्रयमय अक्षय सम्पत्ति, जिनके प्रगटी सुखकारी । अहो शुभाशुभ कर्मोदय में, परिणति रहती अविकारी ॥ उनकी चरण शरण से ही हो, दुखमय भव का अंत है ॥ धन्य ॥५॥ क्षमाभाव हो दोषों के प्रति, क्षोभ नहीं किंचित् आवे | समता भाव आराधन से निज, चित्त नहीं डिगने पावे || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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