Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 30
________________ 28 वैराग्य पाठ संग्रह समाधिमरण पाठ सहज समाधिस्वरूप सु ध्याऊँ, ध्रुव ज्ञायक प्रभु अपना। सहज ही भाऊँ सहज ही ध्याऊँ, धुव्र ज्ञायक प्रभु अपना ॥१॥ आधि व्याधि उपाधि रहित हूँ, नित्य निरंजन ज्ञायक। जन्म मरण से रहित अनादिनिधन ज्ञानमय ज्ञायक ॥२॥ भावकलंक से भ्रमता भव-भव, क्षण नहीं साता आयी। पहिचाने बिन निज ज्ञायक को, असह्य वेदना पायी ॥३॥ मिला भाग्य से श्री जिनधर्म, सुतत्त्व ज्ञान उपजाया। देहादिक से भिन्न ज्ञानमय, ज्ञायक प्रत्यक्ष दिखाया ॥४॥ कर्मादिक सब पुद्गल भासे, मिथ्या मोह नशाया। धन्य-धन्य कृतकृत्य हुआ, प्रभु जाननहार जनाया ॥५॥ उपजे-विनसे जो यह परिणति, स्वांग समान दिखावे। हुआ सहज माध्यस्थ भाव, नहीं हर्ष विषाद उपजावे ॥६॥ स्वयं, स्वयं में तृप्त सदा ही, चित्स्वरूप विलसाऊँ। हानि-वृद्धि नहीं होय कदाचित्, ज्ञायक सहज रहाऊँ॥७॥ पूर्ण स्वयं मैं स्वयं प्रभु हूँ, पर की नहीं अपेक्षा। शक्ति अनन्त सदैव उछलती, परिणमती निरपेक्षा ॥८॥ अक्षय स्वयं सिद्ध परमातम, मंगलमय अविकारी। स्वानुभूति विलसे अन्तर में, भागे भाव विकारी॥९॥ निरुपम ज्ञानानन्दमय जीवन, स्वाश्रय से प्रगटाया। इन्द्रिय विषय असार दिखे, आनन्द स्वयं में पाया॥१०॥ नहीं प्रयोजन रहा शेष कुछ, देह रहे या जावे। भिन्न सर्वथा दिखे अभी ही, नहीं अपनत्व दिखावे ॥११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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