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वैराग्य पाठ संग्रह
गुरु उपदेश्यो धर्म शिरोमणि, सुन राजा वैरागे । राज-रमा- वनितादिक जे रस, ते रस बेरस लागे || ३ || मुनिसूरज कथनी किरणावलि, लगत भरमबुधि भागी । भवतनभोग स्वरूप विचारयो, परम धरम अनुरागी ॥ इह संसार महावन भीतर भ्रमते ओर न आवै । जामन मरन जरा दव दाझै, जीव महादुख पावै ॥४॥ कबहूँ जाय नरक थिति भुंजै, छेदन - भेदन भारी । कबहूँ पशु परजाय धरै तहँ, बध-बंधन - भयकारी ॥ सुरगति में पर-संपति देखे, राग उदय दुःख होई । मानुषयोनि अनेक विपतिमय, सर्व सुखी नहिं कोई ॥५॥ कोई इष्ट वियोगी विलखै, कोई अनिष्ट संयोगी । कोई दीन दरिद्री विगूचे, कोई तन के रोगी ।। किसही घर कलिहारी नारी, कै बैरी सम भाई | किसी के दुःख बाहिर दीखै, किस ही उर दुचिताई || ६ || कोई पुत्र बिना नित झूरै, होय मरे तब रोवै । खोटी संतति सों दुःख उपजै, क्यों प्रानी सुख सोवै ॥ पुण्य उदय जिनके तिनके भी, नाहिं सदा सुख साता । यह जगवास जथारथ देखे, सब दीखै दुःख दाता ||७|| जो संसार विषै सुख होता, तीर्थंकर क्यों त्यागे । काहे को शिव साधन करते, संजम सों अनुरागे ॥ देह अपावन अथिर घिनावन, यामैं सार न कोई । सागर के जल सों शुचि कीजै, तो भी शुद्ध न होई ॥८॥ सप्त कुधातु भरी मल मूरत, चाम लपेटी सोहै । अन्तर देखत या सम जग में, अवर अपावन को है ॥ नव मल द्वार स्रवैं निशि-वासर, नाम लिये घिन आवै । व्याधि-उपाधि अनेक जहाँ तहँ, कौन सुधी सुख पावै ॥९॥
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