Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 38
________________ 36 दुर्लभ दस दृष्टान्त सम, सो नरभव तुम पाय । विषय सुखन के कारने, सर्वस चले गमाय ॥ ९ ॥ जगहिं फिरत कई युग भये, सो कछु कियो विचार | चेतन अब तो चेतहू, नरभव लहि अतिसार ॥ १०॥ ऐसे मति विभ्रम भई, विषयनि लागत धाय । कै दिन कै छिन कै घरी, यह सुख थिर ठहराय ॥ ११॥ पी तो सुधा स्वभाव की, जी तो कहूँ सुनाय । तू रीतो क्यों जातु है, वीतो नरभव जाय ॥ १२॥ मिथ्यादृष्टि निकृष्ट अति, लखै न इष्ट अनिष्ट। भ्रष्ट करत है शिष्ट को, शुद्ध दृष्टि दे पिष्ट ॥१३॥ चेतन कर्म उपाधि तज, राग-द्वेष को संग । ज्यों प्रगटे परमात्मा, शिव सुख होय अभंग || १४|| वैराग्य पाठ संग्रह ब्रह्म कहूँ तो मैं नहीं, क्षत्री हूँ पुनि नाहिं | वैश्य शूद्र दोऊ नहीं, चिदानन्द हूँ माहिं ॥ १५॥ जो देखै इहि नैन सों, सो सब बिनस्यो जाय । तासों जो अपनी कहे, सो मूरख शिर राय ||१६|| पुद्गल को जो रूप है, उपजे विनसै सोय । जो अविनाशी आतमा, सो कछु और न होय ॥१७॥ देख अवस्था गर्भ की, कौन - कौन दुख होहिं । बहुरि मगन संसार में, सो लानत है तोहि ॥ १८ ॥ अधो शीश ऊरध चरन, कौन अशुचि आहार । थोरे दिन की बात यह, भूल जात संसार ।। १९ ।। अस्थि चर्म मल मूत्र में, रैन दिना को वास । देखें दृष्टि घिनावनो, तऊ न होय उदास ||२०|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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