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वैराग्य पाठ संग्रह
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उर में सदा विराजें अब तो, मंगलमय भगवंत हैं | धन्य... ॥ ६ ॥
हो निशंक, निरपेक्ष परिणति, आराधन में लगी रहे । क्लेशित हो नहीं पापोदय में, जिनभक्ति में पगी रहे ॥ पुण्योदय में अटक न जावे, दीखे साध्य महंत है ॥ धन्य...||७|| परलक्षी वृत्ति ही आकर, शिवसाधन में विघ्न करे । हो पुरुषार्थ अलौकिक ऐसा, सावधान हर समय रहे ॥ नहीं दीनता, नहीं निराशा, आतम शक्ति अनंत है ॥ धन्य... ॥ ८ ॥
चाहे जैसा जगत परिणमे, इष्टानिष्ट विकल्प न हो। ऐसा सुन्दर मिला समागम, अब मिथ्या संकल्प न हो ॥ शान्तभाव हो प्रत्यक्ष भासे, मिटे कषाय दुरन्त है ॥ धन्य...॥ ९ ॥ यही भावना प्रभो स्वप्न में भी, विराधना रंच न हो । सत्य, सरल परिणाम रहें नित, मन में कोई प्रपंच न हो ॥ विषय कषायारम्भ रहित, आनन्दमय पद निर्ग्रन्थ है ॥ धन्य... ॥ १० ॥ धन्य घड़ी हो जब प्रगटावे, मंगलकारी जिनदीक्षा । प्रचुर स्वसंवेदनमय जीवन, होय सफल तब ही शिक्षा ॥ अविरल निर्मल आत्मध्यान हो, होय भ्रमण का अंत है ॥ धन्य...॥११॥
अहो जितेन्द्रिय जितमोही ही, सहज परम पद पाता है। समता से सम्पन्न साधु ही, सिद्ध दशा प्रगटाता है | बुद्धि व्यवस्थित हुई सहज ही, यही सहज शिवपंथ है ॥ धन्य...॥१२॥
आराधन में क्षण-क्षण बीते, हो प्रभावना सुखकारी । इसी मार्ग में सब लग जावें, भाव यही मंगलकारी ॥ सदृष्टि- सद्ज्ञान- चरणमय, लोकोत्तम यह पंथ है ॥ धन्य...॥ १३ ॥
तीनलोक अरु तीनकाल में, शरण यही है भविजन को । द्रव्य दृष्टि से निज में पाओ, व्यर्थ न भटकाओ मन को ।। इसी मार्ग में लगें - लगावें, वे ही सच्चे संत हैं | धन्य... ॥ १४ ॥
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