Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ 15 वैराग्य पाठ संग्रह जब बाह्य मुमुक्षु रूप धार, ज्ञानाम्बर को धारण करता। अत्यन्त मलिन रागाम्बर तज, सुन्दर शिवरूप प्रकट करता॥१२॥ एकत्व ज्ञानमय ध्रुव स्वभाव ही, एक मात्र सुन्दर जग में। जिसकी परिणति उसमें ठहरे, वह स्वयं विचरती शिवमग में ॥१३॥ वह समवसरण में सिंहासन पर, गगन मध्य ही तिष्ठाता। रत्नत्रय के भूषण पहने, अपनी प्रभुता को प्रगटाता॥१४॥ पर नहीं यहाँ भी इतिश्री, योगों को तज स्थिर होता। अरु एक समय में सिद्ध हुआ, लोकाग्र जाय अविचल होता।।१५।। वीर शासन दशक वीरनाथ का मंगल शासन, जग में नित जयवंत रहे। स्वानुभूतिमय श्री जिनशासन, जग में नित जयवंत रहे।टेक।। श्री जिनशासन के आधार, भव सागर से तारणहार। वीतराग सर्वज्ञ जिनेश्वर, जग में नित जयवंत रहें।१।। वस्तु स्वरूप दिखावनहार, हेयाहेय बतावनहार। नित्य-बोधिनी माँ जिनवाणी, जग में नित जयवंत रहे॥२॥ मुक्तिमार्ग विस्तारनहार, धर्ममूर्ति जीवन अविकार। रत्नत्रय धारक मुनिराज, जग में नित जयवंत रहें॥३॥ चैत्य चैत्यालय मंगलकार, धर्म संस्कृति के आधार । सहज शान्तिमय धर्मतीर्थ सब, जग में नित जयवंत रहें।।४।। देव गुरु की मंगल अर्चा, आनंदमयी धर्म की चर्चा । स्याद्वादमय ध्वजा हमारी, जग में नित जयवंत रहे ।।५।। अष्ट-अंगमय सम्यग्दर्शन, अनेकांतमय जीवन दर्शन । सहज अहिंसामयी आचरण, जग में नित जयवंत रहे ।।६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124