Book Title: Vairagya Path Sangraha
Author(s): Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publisher: Kundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh

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Page 19
________________ वैराग्य पाठ संग्रह 17 - देखत होउ निहाल अहो निज परम प्रभू देखो। पाया लोकोत्तम जिनशासन आतमप्रभु देखो।।९।। निश्चय नित्यानन्दमयी अक्षय पद पाओगे। दुखमय आवागमन मिटे भगवान कहाओगे॥१०॥ सामायिक पाठ प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणी जनों में हर्ष प्रभो। करुणा स्रोत बहे दुखियों पर, दुर्जन में मध्यस्थ विभो॥१॥ यह अनन्त बल शील आतमा, हो शरीर से भिन्न प्रभो। ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको॥२॥ सुख-दुख वैरी-बन्धुवर्ग में, कांच-कनक में समता हो। वन-उपवन प्रासाद-कुटी में, नहीं खेद नहिं ममता हो॥३॥ जिस सुन्दरतम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ। वह सुन्दर पथ ही प्रभु ! मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ ।।४।। एकेन्द्रिय आदिक प्राणी की, यदि मैंने हिंसा की हो। शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह, निष्फल हो दुष्कृत्य प्रभो॥५॥ मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन, जो कुछ किया कषायों से। विपथ गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से ॥६॥ चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु ! मैं भी आदि उपांत। अपनी निन्दा आलोचन से, करता हूँ पापों को शान्त ॥७॥ सत्य अहिंसादिक व्रत में भी, मैंने हृदय मलीन किया। व्रत विपरीत प्रर्वतन करके, शीलाचरण विलीन किया ॥८॥ कभी वासना की सरिता का, गहन सलिल मुझ पर छाया। पी-पीकर विषयों की मदिरा, मुझमें पागलपन आया॥९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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