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उत्तराध्य- उत्तम धर्मनी श्रुति पामीने फरी श्रद्धा दुर्लभ हे तत्त्वमा रुचि थवी दुष्माय होय छे; कारण के जनलोक, मिथ्यात्व सेवी थाय छे
15 भाषांतर यनसूत्रम् । तेथी तेओमां मिथ्यात्वनो उदय थवाथी तेओनी जिनधर्ममां रुचि दुर्लभ थाय छे तेथी हे गौतम! समयमात्र पण तमे प्रमाद मा करशो. अध्य०१० ॥६०५॥
धम्म पि हु सदहंतया । दुल्लाहया कारण फासया ॥ इह कामगुणेसु मुच्छ्यिा । समयं गीयम मा पमायए ।२०॥ AGI [धम्म'] धमने [सद्दहतया पिहु] सद्दहता थका पण [कारण तेने कायावडे [फासया] स्पर्श करनारा [दुलहया] अति दुलभ छे कारण के [इह] आ जगतमां [कामगुणेसु कामभोगने विषे [मुच्छि आ] मू वाळा होय छे छतां गोयम] हे गौतम! [समयं]
व्या०-धर्म जिनोक्तं धर्म श्रद्दधतः, जिनोक्तमागमं साधुश्राद्धधर्म वा सर्व सत्यमिति जानतोऽपि जीवस्य कायेन शरीरेण, कायग्रहणेन कायसंबद्धयोवागमनसोरपि ग्रहणं, तस्मात्कायेन वचसा मनसा च स्पर्शना दुर्लभिका, धर्मक्रियानुष्ठानकरणं दुःकरमित्यर्थः. इह जगति जीवाः कामगुणेषु विषयेषु मूर्छिता लोलुपा भवंति, विषयिणो हि धर्मक्रियास्वयोग्याः, हे गौतम! धर्मक्रियानुष्ठान करणं दुःकरमिति समयमात्रमपि प्रमादं मा कुर्याः? ॥२०॥ धर्म-जिनोक्त धर्मने श्रद्धाथी पामीने पण, अर्थात्-जिनोक्त आगम तथा साधुश्राद्धधर्म सर्व सत्य छे एम जाग्या छतां पण जीव, कायावडे (अहि 'काय' शब्दथी काया साथेना वाणी तथा मननुं ग्रहण करवानुं छे) काया मन तथा वाणी वडे स्पर्शना-धर्मक्रियान
आचरण करवु ए तो अति दुर्लभ-दुष्कर छे. आ जगत्मां जीवो काम गुणोमां मूर्छित लोलुप होय छे, एटले विषयीजनो धर्मक्रि| यामां अयोग्य गणाय तेथी हे गौतम! धर्मक्रियाओनुं अनुष्ठान करवू ए अति दुष्कर होवाथी समयमात्र पण प्रमाद मा करशो. २०
परिझरइ ते सरीरयं । केसा पांडुरया हवंति ते ॥ से सोयबले य हायई । समयं गोयन मा पमायए ॥२१॥
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