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| विद्युच्छिखा नामे राणी छे तेनी अमे बेय पुत्रीओ छइए, अमारो भाइ उन्म नामनो एक समये अमारा पिता पोताना मित्र अनि उत्तराध्य
भाषांतर शिखनी साथे गोष्ठी विनोदमां बेठा हता तेटलामा अष्टापद पर्वत फरता जता सुर तथा असुरना समूहने जोइ राजा पण पुत्री सहित पनसूत्रम्
२८ अध्य०१३ त्यां जवा नीकच्या. अष्टापद पहोंचीने जिन प्रतिमाओने बंदना करी कपूर अगुरु धूप इत्यादिक महान उपचार समर्पो त्रण प्रद॥७५४॥ क्षिणा करीने नीकळतां राजाए अशोक वृक्ष नीचे बेटेला ये चारण मुनि दीठा तेने वंदन करी यां बेठा त्यारे राजाने गुरुए आ
॥७५४|| | प्रमाणे धर्मदेशना करवा मांडी 'संसार असार छ; शरीर क्षणभंगुर छे; शरदऋनुना वादळां जेवू जीवित छे. आ यौवन ता वोजबीना चमकारा समान छे, आ सर्व विषयोपभोग किंवाक-सडाना फळ जेवो परिणाम विरस छे विषय जन्य सुख तो संध्याना
राग तुल्य क्षणिक छे. लक्ष्मी तो दर्भनी अणि उपर टकेला जळकण जेवी चपळ छे. दुःख सुलभ छे पण सुख तो अत्यंत दुर्लभ छे. oil अने मृत्यु तो कोइथी रोकी के अटकावी शकाय नहि तेयो छे. ज्यारे आम छे तो हे भल्य जीवो ! मोहना फेलावाने छेदो, जिनेंद्र
धर्ममा मन राखो; आवां चारण श्रमणनां उपदेश वचनो सांभळी सुर आदिक जेम आव्या हता तेम चालता थया. आ वखते अवकाश मळवाथी अग्निशिखे पूछयु के-'हे महाराज ! आ वे बाळकीओने कोण वर मलशे?' चारण श्रमणे का-आ बेय कन्यानो ए कन्याना भाइनो वध करनारो वर थशे, अर्थात् ए कन्याना भाइने मारनारनी आ बेय कन्याओ भार्या थशे. आ साभळी राजा, मुख श्याम थइ गयु.
अस्मिन्नवसरे आवाभ्यामुक्तं, तात ! सांप्रतमेव साधुभ्यामुक्तं संसारस्वरूपं, तत आवयोरल मेवंविधावसानेन | विषयसुखेन आवयोरेतद्वचस्तातेन प्रतिपन्नं. आवाभ्यां च भ्रातृस्नेहेन स्वदेहसुखकारणानि स्यक्तानि. भ्रातुरेव स्ना
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